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गुरुवार, 10 सितंबर 2009

....तालीम के लब्ज़ों को....



तालीम
के लब्ज़ों को हम तीर बना लेंगे।
मिसरा जो बने पूरा शमशीर बना लेंगे।

जाहिल रहे कोई, ग़ाफ़िल रहे कोई।
हम मर्ज कि दवा को अकसीर बना लेंगे।

रस्मों के दायरों से हम अब निकल चूके है।
हम ईल्म की दौलत को जागीर बना लेंगे।

अबतक तो ज़माने कि ज़िल्लत उठाई हमने।
ताक़िद ये करते हैं, तदबीर बना लेंगे।

जिसने बुलंदीओं कि ताक़ात हम को दी है।
हम भी वो सिपाही की तस्वीर बना लेंगे।

मग़रीब से या मशरीक से, उत्तर से या दख़्ख़न से।
तादाद को हम मिल के ज़ंजीर बना देंगे।

मिलज़ुल के जो बन जाये, ज़ंजीर हमारी तब।
अयराज़इसी को हम तक़दीर बना लेंगे।