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चीन में मुसलमानों की अपनी एक अलग पहचान है

Written By Mohammed Umar Kairanvi on बुधवार, 21 अक्तूबर 2009 | बुधवार, अक्तूबर 21, 2009

मुस्लमानों को बहुत गर्व महसूस होता है जब वे पैगम्बर-ए-इस्लाम की इस बात को दोहराते है कि ‘‘इल्म हासिल करने के लिए चीन भी जाना पडे तो जाओ’’ इससे इल्म हासिल करने की अहमियत का पता चलता है भले ही कितनी भी मुश्किलें क्यों न उठानी पडे। मुहम्मद साहब सल्ल. के जमाने में चीनी सभ्यता पूर्ण विकसित हालत में थी। चीन में इस्लाम की शुरूआत तीसरे खलीफा हज़रत उस्मान (रजि.) के दौर में हुई। बिजेन्टाइन, रोम और पर्शिया को जीतने के बाद हज़रत उस्मान ने मुहम्मद साहब सल्ल. की वफ़ात के 18 साल बाद यानि 21 हिज़री सन (650ई) में उनके मामू साढ इब्न अबी वका़स की कयादत में एक वफद चीन के बादशाह को इस्लाम की इबादत की दावत देने के लिए भेजा।
लेकिन अरब के सौदागर इससे पहले यानि हज़रत मुहम्मद सल्ल. की जिंदगी में ही इस्लाम का परिचय चीनियों से करा चुके थे। हालांकि ये संगठित प्रयास नही था। लेकिन ये उनके सफर का एक हिस्सा था जो रेशम मार्ग से वे किया करते थे।
हालांकि अरबों की तारीख में इसका उल्लेख कम ही मिलता है लेकिन चीन में इस घटना का उल्लेख है। वह ये है कि तांग वंश के राजा ने सबसे पहले इस्लाम के प्रति अपना प्रेम दर्शाने के लिए एक मस्जिद के निर्माण का आदेश दिया। कैंटन सिटी में स्थित शानदार मस्जिद आज भी यादगार मस्जिद के नाम से मौजूद है चौदह सदियों बाद भी मुसलमानों की सबसे पहली बस्ती भी इसी तटीय शहर में बस्ती थी उम्मैद और अब्बासी खलीफाओं को भेजे छः वफद चीन में गर्मजोशी से स्वीकार किये गये। मुसलमान शुरू में चीन में बस गये थे उन्होंने जल्दी ही इस देश की अर्थव्यवस्था पर अपना असर डालना शुरू कर दिया। उन्होंने सुंग वंश (960-1279 ई0) तक चीन के कारोबार पर अपना नियंत्रण कर लिया। यहां तक की जहाज रानी विभाग का महानिदेशक भी इस दौर में एक मुसलमान ही था। मिंग वंश (1368-1644) का शासन काल इस्लाम के लिए एक स्वर्ग युग की तरह है- जब मुसलमान धीरे-धीरे हान समाज में घुल मिल गये।
इस दौर का विश्‍लेषन करने पर एक दिलचस्प तथ्य सामने आता है कि कैसे चीनी मुसलमानों ने अपने नाम तब्दील किए। बहुत मुसलमानों ने जिनकी शादियां हान महिलाओं से हुई थी अपनी पत्नी का नाम ग्रहण कर लिया। जबकि दूसरों ने मो, माइ,मू जैसे नाम अख्तियार कर लिए जो मुहम्मद, मुस्तफा और मसूद से मिलते जुलते है। बाकी दूसरों ने जिनको चीनी नाम नही मिले उन्होने चीनी भाषा के हर्फ अख्तियार कर लिए जैसे हसन के लिए हा, हुसैन के लिए हू या सईद के लिए साई।

नामों के साथ मुसलमानों के रीति रिवाज, खान-पान और वेष भूषा भी चीनी संस्कृति में रच बस गई। मगर वेष-भूषा में इस्लामी रवयत(परम्पराओं) और पाबंदियों का भरपूर ख्याल रखा गया। वक्त गुजरने के साथ मुसलमानों

ने हान लहजा अख्तियार कर लिया और चीनी भाषा पढने लगे।
मिगं युग मुसलमानों को, दूसरे चीनियों से अलग करना और पहचानना मुश्किल था सिवाय उनके रीति-रिवाजों के आर्थिक क्षेत्र में सफल होने के बावजूद मुसलमानों को नेक, कानून के मानने वाले और अनुशासित लोगों में शुमार किया जाता था। इसी वजह से चीन के मुसलमानों और गै़र-मुसलमानों में तकरार रहती थी।

साल गुजरते गये और मुसलमानों ने मस्जिदें, स्कूल और मदरसे स्थापित कर लिए। इन स्कूलो और मदरसों मे रूस और भारत जैसे देशों से भी लोग पढने जाते थे। ऐसा कहा जाता है कि 1790ई0 मे चीन में तकरीबन 30,000 इस्लामिक छात्र थे और इमाम बुखारी का जन्म स्थान ‘बुखारा’ जो उस समय चीन का हिस्सा था इस्लाम का मुख्य सतून(स्तम्भ) था।

चिंग वंश (1644-1911) के उत्थान ने ये सब बदल दिया। चिंग लोग मंचु ना कि हान थे जो चीन में अल्पसंख्यक थे। उन्होंने बाये और राज करो की नीति ने तहत मुसलमानों, हान, तिब्बतियों एवं मंगोलो को एक दूसरे के खिलाफ लडा दिया। उन्होने मुसलमानों के खिलाफ समूचे चीन में नफरत फैलाने का काम किया। और हान योद्धाओं को मुसलमानों को दबाने के लिए इस्तेमाल किया 1911 में जब मांचु वंश का पतन हो गया और सुन मात सेन ने चीनी गणराज्य की स्थापना की उसने तुरंत ऐलान कर दिया कि चीन हान, हुई (मुसलमान) मान, ह्मांचु» मेंग ह्मंगोल» और सांग ह्तिब्बती» सबका है। उसकी नीतियों से इन समुदायों के रिश्‍ते बेहतर होने लगे।

1949 में पीपुल्स रिपब्लिक आफ चाइना की स्थापना के बाद सांस्कृतिक क्रान्ति को दबाने के लिए बहुत जोर लगाया गया। चीनी जनसमुदाय के साथ-साथ मुसलमान भी इसके षिकार हुए। 11वीं केन्द्रीय समिति की तीसरी कांग्रेस के बाद सरकार ने मुसलमानों और इस्लाम को छूट प्रदान की 1978 में जैसे ही धार्मिक स्वतंत्रता की घोशणा की गई मुसलमानों ने इसे फोरन हाथों-हाथ लिया।

वर्तमान सरकार के नेतृत्व में इस्लाम फलने-फूलने का बेहतरीन मौका मिल रहा है। धार्मिक नेता कहते है कि आज इबादत करने वालों की संख्या सांस्कृतिक क्रान्ति से पहले की संख्या से कहीं अधिक है और युवाओं में धर्म के प्रति आस्था और रूचि बढ रही है।

चीन में मस्जिदों से सम्बंधित एक प्रकाशन (1998) के अनुसार आज यहां 32,749 मस्जिदें है। जिनमे 23000 तो अकेले जि जियांग प्रान्त में ही है। मुसलमानों के इस्लाम के प्रदर्शन के प्रति काफी जोश देखा जा सकता है और राष्‍ट्रीय स्तर पर कई समितियां एवं संगठनों का गठन किया गया है जो मुसलमानों के बीच अंतर्जातीय एकता स्थापित करने के सफल प्रयास करती रहती है। इस्लामी साहित्य कहीं भी देखा जा सकता है। चीनी भाषा में कुरआन के तर्जुमे मिलते है।
ऐसे इलाकों में जहां मुसलमान बहुसंख्यक है चीनी गै़र मुसलमानों द्वारा सुअर-पालन निषेध (तिबंधित) है। मुसलमानों के अपने कब्रिस्तान है। मुसलमान दंपति यदि किसी इमाम की मदद से विवाह करना चाहे तो उनको इजाजत है। इसके अलावा मुस्लिम कर्मचारियों को त्योहारों के समय छुट्टी प्रदान करने में कोई परेशानी नही है। मुसलमानों को हज में जाने के लिए असीमित भत्ता दिया जाता है। चीन के मुसलमान देश की आंतरिक राजनीति से भी जुडे हुए है। चीनी मुसलमानों के लिए चीन में इस्लाम पूरी तरह जिंदा है। उन्होने सातवी सदी से ही अपने विश्‍वास को जीवित रखने में हर तरह की परेशानियों का सामना किया है।
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चीन की ज़ियान मस्जिद- ये चीन की मशहूर ज़ियान मस्जिद है जो 742 ईसवी में चीनी पगोडा की शक्ल की बनाई गई। दुनिया में ये अकेली ऐसी मस्जिद है जिसमें चीनी भाषा में अजा़न दी जाती है। ये अरबी व्यापारियों के यहां की चीनी लडकियों से शादी करने के बाद वजूद में आयी थी। चीन में इस वक्त लगभग 128 मिलियन मुसलमान रहते हैं जिनका धर्म इस्लाम है मगर संस्कृति चीनी है।
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साभारः आसिफ खान,'बुलन्द भारत' मासिक, 15 अगस्त से 14 सितम्बर 2005, पृष्‍ठ 8
thanks: umar saif
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