जीन बैप्टिस्ट लैमार्क (Jean-Baptiste Lamarck) अट्ठारहवीं सदी का एक मशहूर फ्रेंच साइंसदान हुआ है। जिसने डार्विन से भी पहले विकासवाद (evolution) की बात की थी। सच कहा जाये तो विकासवाद की बुनियाद उसी ने रखी थी। जबकि डार्विन ने असलियत में थ्योरी ऑफ नेचुरल सेलेक्शन (Theory of Natural Selection) की बुनियाद रखी थी। लैमार्क ने अपनी थ्योरी में कहा कि जिस्म के वो हिस्से जिनका इस्तेमाल ज्यादा होता है धीरे धीरे ज्यादा विकसित होते जाते हैं। और यह सिलसिला पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है। साथ ही जिन अंगों का इस्तेमाल नहीं होता वह धीरे धीरे छोटे होते जाते हैं और कई पीढ़ियों के बाद उन अंगों के केवल निशान ही रह जाते हैं। दूसरे शब्दों में जिस्म के जिन हिस्सों का जैसा इस्तेमाल होता है, वैसे ही वो हिस्से ढल जाते हैं। लैमार्क ने अपनी थ्योरी के ज़रिये ज़िराफ की लंबी गर्दन की वजह बताते हुए कहा कि एक समय था जब जिराफ के आसपास के इलाके में ज़मीन पर प्रचुर मात्रा में वनस्पतियां पायी जाती थीं। फिर धीरे धीरे उनकी कमी होने लगी और जिराफ को पेड़ों के पत्तों को खाने के लिये अपनी गर्दन ऊंची करनी पड़ी। नतीजे में उसकी गर्दन का विकास हुआ और वह लंबी होने लगी।
इसी तरह लोहार की माँसपेशियाँ उसके पेशे के एतबार से मज़बूत होती हैं। और उसका यह गुण उसके बेटे में अनुवांशिक रूप से आ जाता है।
इसी तरह इंसान में कानों की लवें या आँतों के अपेण्डिक्स के बारे में बताया जाता है कि ये जानवरों में काम के अंग होते हैं, लेकिन चूंकि इंसानों में इनका इस्तेमाल नही होता इसलिए इनके सिर्फ निशान ही बाकी हैं।
लैमार्क के बाद कुछ वैज्ञानिकों ने उसकी थ्योरी की सच्चाई परखने के लिये कुछ एक्सपेरीमेन्ट किये जिसके नतीजे उम्मीद के खिलाफ थे। एक वैज्ञानिक चूहों की कई पीढ़ियों तक उनकी पूंछ काटते रहे लेकिन उसके बाद भी दुमकटे चूहों की नस्ल पैदा नहीं हुई। लिहाज़ा लैमार्क थ्योरी ठंडे बस्ते में डाल दी गयी।
लैमार्क थ्योरी के रिजेक्ट होने के बाद कुछ साइंसदानों ने उस थ्योरी में बदलाव करते हुए एक नयी थ्योरी पेश की जिसे न्यो लैमार्किज्म़ (Neo-Lamarckism) कहा जाता है। यह थ्योरी अनुवांशिकता पर पर्यावरण के प्रभाव को बताती है। यह थ्योरी न्यो डार्विनिज्म़ (Neo-Darwinism) के विपरीत है जो की सिर्फ नेचुरल सेलेक्शन की बात करती है और पूर्वजों में जो गुण काम करते करते विकसित हो जाते हैं अनुवांशिकता में वे नहीं आते। लेकिन अब एपीजेनेटिक्स (Epigenetics) में हाल ही में हुई कुछ रिसर्च बताती हैं कि जीवों की आदतों में और प्रकृति में जो भी बदलाव होता है उसका एक अंश अगली पीढ़ी में पहुंच जाता है। ये परंपरागत अनुवांशिकता से अलग होता है, अत: इसे कोमल अनुवांशिकता (Soft Inheritence) या लैमार्कियन अनुवांशिकता कहा जाता है।
सन 1988 में जॉन केयर्नस नामक साइंसदान ने अपनी टीम के साथ ई-कोली नामक बैक्टीरिया पर एक रिसर्च की जिससे न्यो लैमार्किज्म़ की पुष्टि हुई। ई-कोली बैक्टीरिया शुगर लैक्टोज खाने में असमर्थ होता है। जॉन केयर्नस की टीम ने ई-कोली बैक्टीरिया के आसपास शुगर लैक्टोज को ही खाने के इकलौते सोर्स के रूप में रखा। बाद में उन्होंने पाया कि ई-कोली बैक्टीरिया ने म्यूटेशन के ज़रिये अपने अन्दर शुगर लैक्टोज़ खाने की क्षमता विकसित कर ली थी। इसके लिये उनके जीन में कुछ परिवर्तन उसी हिसाब से पैदा हो गये थे। इस तरह से देखा जाये तो लैमार्क थ्योरी को साइंसदान आज भी कुछ सुधार के साथ स्वीकार करते हैं।
अब सवाल उठता है कि क्या लैमार्क थ्योरी की पेशकश वास्तव में लैमार्क ने ही की थी? या उससे पहले किसी और हस्ती ने इस थ्योरी के राज़ लोगों पर ज़ाहिर कर दिये थे? पुराने किताबों को खंगालने में इसका जवाब हाँ में ही मिलता है।
लैमार्क से एक हज़ार साल पहले हुए हैं इमाम जाफर सादिक अलैहिस्सलाम और उन्होंने इस थ्योरी को कहीं बेहतर और आसान तरीके से अपने शागिर्दों को बता दिया था। इस्लामी दानिशवर शेख सुद्दूक (अ.र.) की किताब एललुशशराये में उनकी इससे मुताल्लिक कौल इस तरह दर्ज है।
एक मरतबा हश्शाम बिन हकम ने इमाम जाफर सादिक अलैहिस्सलाम से दरियाफ्त किया कि क्या वजह है कि हथेली की अन्दरूनी जानिब बाल नहीं उगते और बाहरी जानिब बाल उगते है? आपने फरमाया इसके दो सबब हैं। पहली वजह ये है कि वह ज़मीन जिसपर लोग काम करते रहते हैं, उसे गाहते हैं और उस पर कसरत से चलते हैं, उसपर कोई चीज़ नहीं उगती। दूसरी वजह ये है कि ये जिस्म के उन हिस्सों में है जो बराबर चीज़ों से मिलाई हुई रहती है, और उसपर बाल नहीं उगते ताकि चीज़ों को छूकर नर्म व सख्त का एहसास हो और बाल वगैरा भी दरमियान में रुकावट न डालें और बक़ाय खल्क इस के बगैर मुमकिन नहीं।
इस तरह इमाम फरमा रहे हैं कि चूंकि हथेली का इस्तेमाल बहुत ज्यादा होता है इसलिए उसके बाल गायब हो गये ठीक उसी तरह जैसे किसी ऐसे रास्ते पर घास का उगना बन्द हो जाता है जिसपर बहुत ज्यादा लोग चलते फिरते हैं। दूसरे अलफाज़ में कहा जाये तो यहाँ लैमार्क की थ्योरी ही यहाँ पर बताई जा रही है कि जिस्म के जिन हिस्सों का जैसा इस्तेमाल होता है, वैसे ही वो हिस्से ढल जाते हैं।
लिहाज़ा सच यही है कि लैमार्क से हज़ार साल पहले इस्लाम लैमार्कियन अनुवांशिकता की थ्योरी को पेश कर चुका था।