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सोमवार, 19 अप्रैल 2010

हम भी सुधार के हामी हैं.


यहाँ बात हो रही है सुधार की.
वक़्त गुजरने के साथ मज़हब में कुछ ऐसी बातें शामिल हो जाती हैं जो वास्तव में गलत होती हैं और उनका मूल धर्म से कोई लेना देना नहीं होता. मज़हब में फैली हुई कुरीतियों (बल्कि किसी भी तरह की कुरीतियों) के खिलाफ विरोध करना बहुत अच्छी बात है. लेकिन उतना ही ज़रूरी है उसका हल पेश करना. अगर पैगम्बर मोहम्मद (स.अ.) ने उस समय समाज में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ आवाज़ उठाई तो इस्लाम के रूप में उसका हल भी पेश किया. अगर आप कहते हैं की यह गलत है, तो सही क्या है और क्यों है, यह भी आप ही सिद्ध करना है. हम कब तक दूसरों पर दोषारोपण करते रहेंगे? यही काम तो आज के नेता भी कर रहे है, सब एक दूसरे को देश की दुर्दशा के लिए ज़िम्मेदार ठहरा रहा है. हल कोई नहीं पेश कर रहा. 

किसी भी मज़हब की कुरीतियों को मज़हब के अन्दर ही रहते हुए दूर करने की पूरी गुंजाइश है. इसलिए क्योंकि कोई भी कुरीति मज़हब को ढंग से न समझने के कारण पैदा होती है. यह ज़रूरी नहीं की हमें कहीं कोई बुराई दिख रही है तो उसके लिए सीधे मज़हब पर इलज़ाम लगा दें.  

हमारी अंजुमन ऐसा ही प्रयास कर रही है. कुछ उदाहरण :


सफात साहब ने बताया की इस्लाम में औरतों के अधिकार किस तरह के हैं, क्या वाकई वह मर्दों की गुलाम है?
कुरआन की जिस आयत को लेकर लोग औरतों को पीटने की बात करते हैं, वह आयत दरअसल औरत की प्रोटेक्टर है, बस ज़रुरत है दूसरे नजरिये से देखने की.

अगर आप किसी मज़हब के एक खरब मानने वालों से दलीलों के साथ कहते हैं की जिस कुरीति को तुम धर्म समझ रहे वह धर्म का अंग नहीं है तो एक खरब में शायद हज़ार ऐसे होंगे जो आपकी बात स्वीकार नहीं करेंगे.  लेकिन अगर आप ये कहते हैं की यह तुम्हारे धर्म की कुरीति है और इसको अलग करके बाकी बचे हुए धर्म को मानो तो एक खरब में केवल हज़ार ऐसे होंगे जो आपकी बात को स्वीकार करेंगे.



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