अभी हज्ज और क़ुर्बानी का त्योहार आ रहा है। हज्ज और क़ुर्बानी का इतिहास क्या है?मुसलमान हज़्ज और क़ुर्बानी क्यों करते हैं। और हज्ज और क़ुर्बानी का वास्तविक अभिप्राय क्या है? इन सब को समझने के लिए सब से पहले हमें हज्ज और कुर्बानी के नायक को समझना होगा तो आइए! सब से पहले हम हज्ज और कुर्बानी के नायक को जानते हैं?
हज्ज और क़ुर्बानी के नायकः ईब्राहीम (ईश्वर की उन पर शान्ति हो)
आज से अनुमानतः साढ़े चार हज़ार वर्ष पूर्व इब्राहीम अलैहिस्सलाम (ईश्वर की उन पर शान्ति हो) इराक़ के शहर "बाबुल" के एक सम्मानित परिवार में पैदा हुए। आप संदेष्टा "नूह" के बेटे "साम" की संतान में से थे। अतिथिगन थे इसी लिए उनकी उपाधि "अबू-ज़ैफान" (अतिथियों वाला) पड़ गई थी। जिस वातावरण में पैदा हुए क़ुरआन ने उस समय की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति की ओर संकेत किया है जिस से ज्ञात होता है कि उस समय लोग तीन भागों में बटे हुए थे। (1) कुछ लोग चंद्रमा एंव सूर्य की पूजा करते थे। (2) कुछ लोग पत्थर और कंकड़ी से बनाई गई मुर्तियों के सामने झुकते थे। (3) जबकि कुछ लोग उस समय के शासक "नमरूद" की पूजा करते थे।
ऐसे ही अंधकार वातावरण में एक प्रोहित "आज़र" के घर ईब्राहीम अलै0 की पैदाईश हुई। उनके पिता "आज़र" लोहार थे, वह लकड़ी की मूर्ति बनाते, उन्हें बेचते और लोगों को उनकी पूजा की ओर आमंत्रित किया करते थे।
समय गुज़रता रहा। इब्राहीम अलै0 बाल्यावस्था ही से मूर्तियों को अप्रिय दृष्टि से देखते, उनकी आलोचना करते और सोचते रहते कि यह मूर्तियाँ न खा सकती हैं, न पी सकती हैं, न बोल सकती हैं, न सुन सकती हैं तो आखिर लोग इनकी पूजा क्यों करते हैं? इन से लाभ की आशा एवं हानि का भय क्यों रखते हैं? यह कैसे लोग हैं जो अपने हाथों से मूर्ति बनाते हैं और फिर कहते हैं कि यह हमारे पूज्य हैं।
जब ईश्वर ने इब्राहीम अलै0 को अपने समुदाय की ओर संदेष्टा बनाकर भेजा तो सब से पहले आपने अपने पिता को समझाया कि "पिता जी! आप क्यों उन चीज़ों की उपासना करते हैं, जो न सुनती हैं, न देखती हैं, और न आपका कोई काम बना सकती हैं? पिता जी! मेरे पास एक ऐसा ज्ञान आया है जो आपके पास नहीं आया, आप मेरी बात मानें मैं आपको सीधा मार्ग दिखाऊंगा। पिता जी! आप शैतान की पूजा न करें शैतान तो करुणामय ईश्वर का अवज्ञाकारी है। पिता जी! मुझे डर है कि कहीं आप करुणामय ईश्वर के प्रकोप में ग्रस्त न हो जाएं।" (सूरः19 आयत 42-45)
परन्तु पिता ने एक न सुनी और झटकते हुए कहा "हे इब्राहीम! यदि तू अपने इस काम से न रुका तो मैं तुझे पत्थर से मार मार कर बर्बाद कर दूंगा.....बस यही कहता हूं कि तू हमेशा के लिए मुझ से अलग हो जा"।
जब आपको अपने पिता से निराशाजनक उत्तर मिला तो अपने समुदाय के चंद्रमा और सूर्य की पूजा करने वालों को अति तत्वदर्शिता से समझाया, जब रात का अंधकार छा गया तो आपने सब के समक्ष एक सेतारा को देखकर कहा कि यह मेरा भगवान है। परन्तु जब वह डूब गया तो सुबह होते ही कहने लगेः "मैं डूबने वाले की पूजा नहीं कर सकता"। दूसरी रात जब चंद्रमा को देखा तो समुदाय के लोगों से कहने लगेः "यह मेरा भगवान है"। जब वह भी डूब गया तो कहने लगेः "यदि मेरे रब ने मेरा मार्गदर्शन न किया तो मैं पथभ्रष्ट लोगों में से हो जाऊंगा"।
ऐसी शैली मात्र इसलिए अपनाई ताकि समुदाय के लोगों को विश्वास दिला सकें कि आख़िर ऐसी चीज़ों की पूजा से क्या लाभ जो छुपती हों, विदित होती हों, निकलती हों, डूबती हों। पहली रात न समझ सके तो दूसरी रात चंद्रमा को देख कर समझाना चाहा लेकिन फिर भी न समझे तो सुबह में जब सूर्य को निकलते देखा तो कहाः "यह मेरा रब है....यह महान भी है"। फिर जब वह भी डूब गया तो आपने वार्ता समाप्त करते हुए कहाः "हे मेरे समुदाय के लोगो! निःसंदेह मैं तेरे बहुदेववाद से बेज़ार हूं जिन्हें तुम ईश्वर का साझीदार ठहराते हो। मैंने तो एकाग्र हो कर अपना रुख उस सत्ता की ओर कर लिया जिसने आकाश एवं पृथ्वी की रचना की है और मैं कदापि बहुदेववादियों में से नहीं हूं"। (सूरः6 आयत 79-80)
फिर आपने मुर्तिपूजकों को समझाते हुए कहाः"यह मात्र लकड़ी और पत्थर की मूर्तियाँ हैं, यह लाभ अथवा हानि की मालिक नहीं, यह तुमको रोज़ी देने का अधिकार नहीं रखते, केवल तुम अल्लाह से ही रोज़ी माँगो, उसी की उपासना करो,और उसी का शुक्रिया अदा करो। यदि तुम मेरी बात नहीं मानते और मुझे झुटलाते हो तो तुम से पहले भी लोग अपने संदेष्टाओं को झुटला चुके हैं। उन्हों ने भी इब्राहीम अलै0 की एक न मानी और बस... यही रट लगाते रहे कि "आखिर हम इनकी पूजा कैसे छोंड़ दें जबकि हमने अपने पूर्वजों को उनकी पूजा करते हुए पाया है?...."।
आज भी कुछ लोगों को सत्य संदेश बताया जाता है तो तुरंत यही कहते हैं कि हम ऐसी प्रथा का त्याग कैसे कर सकते हैं जो हमारे पितामह से चली आ रही है। इस लिए आपने उनको संतोष-जनक उत्तर देते हुए कहाः "तुम भी अंधकार में हो और तुम्हारे पितामह भी खुले अंधकार में पड़े थे"। अर्थात हमारी आपत्ति जो तुम पर है वही तुम्हारे पूर्वजों पर है, यदि एक गुमराही में तुम्हारे पूर्वज ग्रस्त हों और तुम भी उसमें ग्रस्त हो जाओ तो वह भलाई बनने से रही। मैं कहता हूं कि तुम और तुम्हारे पूर्वज सत्य मार्ग से भटक गए हो।
अब तो उनके कान खड़े हो गए क्यों कि उन्हों ने अपने बुद्धिमानों का अपमान होते देखा औऱ अपने पूर्वजों के प्रति अप्रिय शब्द सुने तो घबरा गए और कहने लगेः "इब्राहीम! क्या वास्तव में तुम ठीक कह रहे हो या मज़ाक कर रहे हो, हमने ऐसी बात कभी नहीं सुनी"?। अब आपको ईश्वर के परिचय का शुभ अवसर मिलाः आपने कहाः "ईश्वर तो केवल आकाश एवं धरती का सृष्टिकर्ता ही है, प्रत्येक चीज़ों का स्वामी वही है, तुम्हारे यह पूज्य किसी तुच्छ चीज़ के न निर्माता हैं, न मालिक। फिर पूज्य कैसे हो गए? मैं साक्षी हूं कि ईश्वर ही उपासना योग्य है, उसके सिवा न कोई प्रभू है औऱ न पूज्य। उसके बावजूद समुदाय के लोगों पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा।
तब ईब्राहीम अलै0 ने अपने दिल में यह ठान ली कि उनकी मुर्तियों का कुछ न कुछ अवश्य इलाज किया जाए। आपने सोचा कि उनके त्योहार का दिन निर्धारित है, उसी दिन यह काम भलि-भांति पूर्ण रूप में सम्पन्न हो सकता है। त्योहार के दिन जब उन से त्योहार में भाग लेने का अनुरोध किया गया तो उन्हों ने कहा कि "मैं बिमार हूं"। जब सब लोग त्योहार मनाने के लिए निकल गए तो एक तेज़ कुल्हारी लिए देवता-वास में प्रवेश किया और प्रत्येक मूर्तियों को टूकड़े टूकड़े कर दी, मात्र बड़ी मूर्ति को रहने दिया ताकि उनके मन मस्तिष्क में यह ख्याल पैदा हो कि शायद बड़ी मूर्ति ने छोटी मूर्तियों को नष्ट कर दिया है।
जब लोग त्योहार से लोट कर आए तो यह देख कर आश्चर्यचकित हो गए कि सारी छोटी मूर्तियां मुंह के बल गिरी हुई हैं। बल्कि उनके पैरों से ज़मीन खिसक गई और कहने लगे कि यह कौन ज़ालिम था जिसने हमारी मूर्तियों का अपमान किया? कुछ लोगों ने कहा कि हमने इब्राहीम को इन पूज्यों के प्रति अपशब्द बोलते सुना है। समुदाय के लोगों ने पारस्परिक परामर्श के बाद यह निर्णय लिया कि सब लोगों के समक्ष इब्राहीम को बुला कर उसे सज़ा दी जाए। अतः जब सब लोग आ गए तो इब्राहीम अलै0 - जो अपराधी के रूप में वहाँ उपस्थित थे - से पूछा गयाः हमारे पूज्यों के साथ यह अपमानजनक कर्म किसने किया है ? उस पर इब्राहीम अलै0 ने कहाः "बल्कि यह काम इस बड़ी मूर्ति ने किया है, तुम अपने इन पूज्यों से ही पूछ लो, यदि यह बोलते हों"। अभिप्राय यह था कि लोग स्वयं समझ लें कि यह पत्थर क्या बोलेंगे, और जब वह इतने विवश हैं तो वह पूज्यनीय कैसे हो सकते हैं?। इस ठोस उत्तर ने उन्हें थोड़ी देर के लिए हिला कर रख दिया, निराशाजनक शैली में कहने लगे कि हमने स्वयं ग़लती की, अपने पूज्यों के पास सुरक्षा-दल रखे बिना त्योहार मानाने चले गए। फिर चिंतन मनन के पश्चात यह बात बनाई कि "तुम जो यह कहते हो कि हम उन से पूछ लें.... तो क्या तुम्हें पता नहीं कि वह बोलते नहीं हैं?...."।
अब इब्राहीम अलै0 को अपने संदेश के परिचय का शुभ अवसर मिल गया, अति दयालू होने के बावजूद तनिक ठोस स्वर में उनको सम्बोधित कियाः "खेद है कि तुम उनकी पूजा करते हो जो न तुम्हें कुछ भी लाभ पहुंचा सकें, न हानि। धिक्कार है तुम पर और तुम्हारे उन देवताओं पर जिनकी तुम ईश्वर को छोड़ कर पूजा करते हो, यह तो गूंगे और बहरे हैं, बोलने तक की क्षमता से वंचित हैं तो तुम्हारी सहायता कैसे करेंगे, क्या तुम कुछ भी बुद्धि नहीं रखते?"।
नियम यह है कि जब एक व्यक्ति प्रमाण से निरुत्तर हो जाता है तो भलाई उसे घसेट लती है अथवा बुराई उसपर अधिकार प्राप्त कर लेती है। यहाँ उन लोगों को उन के दुर्भाग्य ने घेर लिया और अपने दबाव का प्रद्रशन करने के लिए ईब्राहीम अलै0 को आग में जलाने का लिर्णय ले बैठे। लकड़ियाँ एकत्र की गईं, पृथ्वी में एक गहरा कुवां खोदा गया, लकड़ियों से उसे भर दिया गया। फिर उसमें आग लगा दी गई। आसमान से बातें कर रही अग्नि में ईब्राहीम अलै0 को डाल दिया गया। जिस समय आपको अग्नि में डाला गया आपने मात्र यह शब्द बोला कि "अल्लाह हमारे लिए काफी है और वह उत्तम सहायक है"। उसी समय ईश्वर की ओर से अग्नि को आदेश मिला कि "हे आग! ठण्डी हो जा और सलामती बन जा इब्राहीम पर" हर ओर से अग्निशिखा निकल रही थी परन्तु आग ने आपको छुआ तक नहीं और वह अहानिकारक बन कर रह गई (शेष अगले पोस्ट पर )
हज्ज और क़ुर्बानी के नायकः ईब्राहीम (ईश्वर की उन पर शान्ति हो)
आज से अनुमानतः साढ़े चार हज़ार वर्ष पूर्व इब्राहीम अलैहिस्सलाम (ईश्वर की उन पर शान्ति हो) इराक़ के शहर "बाबुल" के एक सम्मानित परिवार में पैदा हुए। आप संदेष्टा "नूह" के बेटे "साम" की संतान में से थे। अतिथिगन थे इसी लिए उनकी उपाधि "अबू-ज़ैफान" (अतिथियों वाला) पड़ गई थी। जिस वातावरण में पैदा हुए क़ुरआन ने उस समय की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति की ओर संकेत किया है जिस से ज्ञात होता है कि उस समय लोग तीन भागों में बटे हुए थे। (1) कुछ लोग चंद्रमा एंव सूर्य की पूजा करते थे। (2) कुछ लोग पत्थर और कंकड़ी से बनाई गई मुर्तियों के सामने झुकते थे। (3) जबकि कुछ लोग उस समय के शासक "नमरूद" की पूजा करते थे।
ऐसे ही अंधकार वातावरण में एक प्रोहित "आज़र" के घर ईब्राहीम अलै0 की पैदाईश हुई। उनके पिता "आज़र" लोहार थे, वह लकड़ी की मूर्ति बनाते, उन्हें बेचते और लोगों को उनकी पूजा की ओर आमंत्रित किया करते थे।
समय गुज़रता रहा। इब्राहीम अलै0 बाल्यावस्था ही से मूर्तियों को अप्रिय दृष्टि से देखते, उनकी आलोचना करते और सोचते रहते कि यह मूर्तियाँ न खा सकती हैं, न पी सकती हैं, न बोल सकती हैं, न सुन सकती हैं तो आखिर लोग इनकी पूजा क्यों करते हैं? इन से लाभ की आशा एवं हानि का भय क्यों रखते हैं? यह कैसे लोग हैं जो अपने हाथों से मूर्ति बनाते हैं और फिर कहते हैं कि यह हमारे पूज्य हैं।
जब ईश्वर ने इब्राहीम अलै0 को अपने समुदाय की ओर संदेष्टा बनाकर भेजा तो सब से पहले आपने अपने पिता को समझाया कि "पिता जी! आप क्यों उन चीज़ों की उपासना करते हैं, जो न सुनती हैं, न देखती हैं, और न आपका कोई काम बना सकती हैं? पिता जी! मेरे पास एक ऐसा ज्ञान आया है जो आपके पास नहीं आया, आप मेरी बात मानें मैं आपको सीधा मार्ग दिखाऊंगा। पिता जी! आप शैतान की पूजा न करें शैतान तो करुणामय ईश्वर का अवज्ञाकारी है। पिता जी! मुझे डर है कि कहीं आप करुणामय ईश्वर के प्रकोप में ग्रस्त न हो जाएं।" (सूरः19 आयत 42-45)
परन्तु पिता ने एक न सुनी और झटकते हुए कहा "हे इब्राहीम! यदि तू अपने इस काम से न रुका तो मैं तुझे पत्थर से मार मार कर बर्बाद कर दूंगा.....बस यही कहता हूं कि तू हमेशा के लिए मुझ से अलग हो जा"।
जब आपको अपने पिता से निराशाजनक उत्तर मिला तो अपने समुदाय के चंद्रमा और सूर्य की पूजा करने वालों को अति तत्वदर्शिता से समझाया, जब रात का अंधकार छा गया तो आपने सब के समक्ष एक सेतारा को देखकर कहा कि यह मेरा भगवान है। परन्तु जब वह डूब गया तो सुबह होते ही कहने लगेः "मैं डूबने वाले की पूजा नहीं कर सकता"। दूसरी रात जब चंद्रमा को देखा तो समुदाय के लोगों से कहने लगेः "यह मेरा भगवान है"। जब वह भी डूब गया तो कहने लगेः "यदि मेरे रब ने मेरा मार्गदर्शन न किया तो मैं पथभ्रष्ट लोगों में से हो जाऊंगा"।
ऐसी शैली मात्र इसलिए अपनाई ताकि समुदाय के लोगों को विश्वास दिला सकें कि आख़िर ऐसी चीज़ों की पूजा से क्या लाभ जो छुपती हों, विदित होती हों, निकलती हों, डूबती हों। पहली रात न समझ सके तो दूसरी रात चंद्रमा को देख कर समझाना चाहा लेकिन फिर भी न समझे तो सुबह में जब सूर्य को निकलते देखा तो कहाः "यह मेरा रब है....यह महान भी है"। फिर जब वह भी डूब गया तो आपने वार्ता समाप्त करते हुए कहाः "हे मेरे समुदाय के लोगो! निःसंदेह मैं तेरे बहुदेववाद से बेज़ार हूं जिन्हें तुम ईश्वर का साझीदार ठहराते हो। मैंने तो एकाग्र हो कर अपना रुख उस सत्ता की ओर कर लिया जिसने आकाश एवं पृथ्वी की रचना की है और मैं कदापि बहुदेववादियों में से नहीं हूं"। (सूरः6 आयत 79-80)
फिर आपने मुर्तिपूजकों को समझाते हुए कहाः"यह मात्र लकड़ी और पत्थर की मूर्तियाँ हैं, यह लाभ अथवा हानि की मालिक नहीं, यह तुमको रोज़ी देने का अधिकार नहीं रखते, केवल तुम अल्लाह से ही रोज़ी माँगो, उसी की उपासना करो,और उसी का शुक्रिया अदा करो। यदि तुम मेरी बात नहीं मानते और मुझे झुटलाते हो तो तुम से पहले भी लोग अपने संदेष्टाओं को झुटला चुके हैं। उन्हों ने भी इब्राहीम अलै0 की एक न मानी और बस... यही रट लगाते रहे कि "आखिर हम इनकी पूजा कैसे छोंड़ दें जबकि हमने अपने पूर्वजों को उनकी पूजा करते हुए पाया है?...."।
आज भी कुछ लोगों को सत्य संदेश बताया जाता है तो तुरंत यही कहते हैं कि हम ऐसी प्रथा का त्याग कैसे कर सकते हैं जो हमारे पितामह से चली आ रही है। इस लिए आपने उनको संतोष-जनक उत्तर देते हुए कहाः "तुम भी अंधकार में हो और तुम्हारे पितामह भी खुले अंधकार में पड़े थे"। अर्थात हमारी आपत्ति जो तुम पर है वही तुम्हारे पूर्वजों पर है, यदि एक गुमराही में तुम्हारे पूर्वज ग्रस्त हों और तुम भी उसमें ग्रस्त हो जाओ तो वह भलाई बनने से रही। मैं कहता हूं कि तुम और तुम्हारे पूर्वज सत्य मार्ग से भटक गए हो।
अब तो उनके कान खड़े हो गए क्यों कि उन्हों ने अपने बुद्धिमानों का अपमान होते देखा औऱ अपने पूर्वजों के प्रति अप्रिय शब्द सुने तो घबरा गए और कहने लगेः "इब्राहीम! क्या वास्तव में तुम ठीक कह रहे हो या मज़ाक कर रहे हो, हमने ऐसी बात कभी नहीं सुनी"?। अब आपको ईश्वर के परिचय का शुभ अवसर मिलाः आपने कहाः "ईश्वर तो केवल आकाश एवं धरती का सृष्टिकर्ता ही है, प्रत्येक चीज़ों का स्वामी वही है, तुम्हारे यह पूज्य किसी तुच्छ चीज़ के न निर्माता हैं, न मालिक। फिर पूज्य कैसे हो गए? मैं साक्षी हूं कि ईश्वर ही उपासना योग्य है, उसके सिवा न कोई प्रभू है औऱ न पूज्य। उसके बावजूद समुदाय के लोगों पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा।
तब ईब्राहीम अलै0 ने अपने दिल में यह ठान ली कि उनकी मुर्तियों का कुछ न कुछ अवश्य इलाज किया जाए। आपने सोचा कि उनके त्योहार का दिन निर्धारित है, उसी दिन यह काम भलि-भांति पूर्ण रूप में सम्पन्न हो सकता है। त्योहार के दिन जब उन से त्योहार में भाग लेने का अनुरोध किया गया तो उन्हों ने कहा कि "मैं बिमार हूं"। जब सब लोग त्योहार मनाने के लिए निकल गए तो एक तेज़ कुल्हारी लिए देवता-वास में प्रवेश किया और प्रत्येक मूर्तियों को टूकड़े टूकड़े कर दी, मात्र बड़ी मूर्ति को रहने दिया ताकि उनके मन मस्तिष्क में यह ख्याल पैदा हो कि शायद बड़ी मूर्ति ने छोटी मूर्तियों को नष्ट कर दिया है।
जब लोग त्योहार से लोट कर आए तो यह देख कर आश्चर्यचकित हो गए कि सारी छोटी मूर्तियां मुंह के बल गिरी हुई हैं। बल्कि उनके पैरों से ज़मीन खिसक गई और कहने लगे कि यह कौन ज़ालिम था जिसने हमारी मूर्तियों का अपमान किया? कुछ लोगों ने कहा कि हमने इब्राहीम को इन पूज्यों के प्रति अपशब्द बोलते सुना है। समुदाय के लोगों ने पारस्परिक परामर्श के बाद यह निर्णय लिया कि सब लोगों के समक्ष इब्राहीम को बुला कर उसे सज़ा दी जाए। अतः जब सब लोग आ गए तो इब्राहीम अलै0 - जो अपराधी के रूप में वहाँ उपस्थित थे - से पूछा गयाः हमारे पूज्यों के साथ यह अपमानजनक कर्म किसने किया है ? उस पर इब्राहीम अलै0 ने कहाः "बल्कि यह काम इस बड़ी मूर्ति ने किया है, तुम अपने इन पूज्यों से ही पूछ लो, यदि यह बोलते हों"। अभिप्राय यह था कि लोग स्वयं समझ लें कि यह पत्थर क्या बोलेंगे, और जब वह इतने विवश हैं तो वह पूज्यनीय कैसे हो सकते हैं?। इस ठोस उत्तर ने उन्हें थोड़ी देर के लिए हिला कर रख दिया, निराशाजनक शैली में कहने लगे कि हमने स्वयं ग़लती की, अपने पूज्यों के पास सुरक्षा-दल रखे बिना त्योहार मानाने चले गए। फिर चिंतन मनन के पश्चात यह बात बनाई कि "तुम जो यह कहते हो कि हम उन से पूछ लें.... तो क्या तुम्हें पता नहीं कि वह बोलते नहीं हैं?...."।
अब इब्राहीम अलै0 को अपने संदेश के परिचय का शुभ अवसर मिल गया, अति दयालू होने के बावजूद तनिक ठोस स्वर में उनको सम्बोधित कियाः "खेद है कि तुम उनकी पूजा करते हो जो न तुम्हें कुछ भी लाभ पहुंचा सकें, न हानि। धिक्कार है तुम पर और तुम्हारे उन देवताओं पर जिनकी तुम ईश्वर को छोड़ कर पूजा करते हो, यह तो गूंगे और बहरे हैं, बोलने तक की क्षमता से वंचित हैं तो तुम्हारी सहायता कैसे करेंगे, क्या तुम कुछ भी बुद्धि नहीं रखते?"।
नियम यह है कि जब एक व्यक्ति प्रमाण से निरुत्तर हो जाता है तो भलाई उसे घसेट लती है अथवा बुराई उसपर अधिकार प्राप्त कर लेती है। यहाँ उन लोगों को उन के दुर्भाग्य ने घेर लिया और अपने दबाव का प्रद्रशन करने के लिए ईब्राहीम अलै0 को आग में जलाने का लिर्णय ले बैठे। लकड़ियाँ एकत्र की गईं, पृथ्वी में एक गहरा कुवां खोदा गया, लकड़ियों से उसे भर दिया गया। फिर उसमें आग लगा दी गई। आसमान से बातें कर रही अग्नि में ईब्राहीम अलै0 को डाल दिया गया। जिस समय आपको अग्नि में डाला गया आपने मात्र यह शब्द बोला कि "अल्लाह हमारे लिए काफी है और वह उत्तम सहायक है"। उसी समय ईश्वर की ओर से अग्नि को आदेश मिला कि "हे आग! ठण्डी हो जा और सलामती बन जा इब्राहीम पर" हर ओर से अग्निशिखा निकल रही थी परन्तु आग ने आपको छुआ तक नहीं और वह अहानिकारक बन कर रह गई (शेष अगले पोस्ट पर )