सलीम अख्तर सिद्दीकी
पाकिस्तान में दो सिखों के सिर कलम करने की घटना निहायत ही निन्दनीय और घटिया है। किसी भी देश के अल्पसंख्यकों की रक्षा करना वहां की सरकार के साथ ही बहुसंख्यकों की भी होती है। लेकिन बेहद अफसोस की बात है कि पाकिस्तान और बंगला देश के अल्पसंख्यकों पर जुल्म कुछ ज्यादा ही हो रहे हैं। दोनों ही देश अल्पसंख्यकों की रक्षा करने में असफल साबित हुए हैं। इक्कीसवीं सदी में धर्म के नाम पर ऐसे अत्याचार असहनीय हैं। पाकिस्तान के जिस हिस्से पर तालिबान का राज चलता है, उस हिस्से के अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की खबरें ज्यादा है। वहां तो कभी का खत्म हो चुका 'जजिया' भी संरक्षण के नाम पर वसूला जा रहा है। 'जजिया' भी करोड़ों रुपयों में वसूले जाने की खबरें हैं। आज की तारीख में शायद ही किसी सउदी अरब जैसे पूर्ण इस्लामी देश में अल्पसंख्यकों से 'जजिया' लिया जाता हो। इस्लाम धर्म अपने देश के अल्पसंख्यको की पूर्ण रक्षा करने का निर्देश देता है। लेकिन ऐसा लगता है कि इसलाम के नाम पर उत्पात मचाने वालों ने इस पवित्र धर्म की शिक्षाओं को सही ढंग से समझा ही नहीं। इस्लाम साफ कहता है कि पड़ोसी के घर की रक्षा करना प्रत्येक मुसलमान का फर्ज है। पड़ोसी भूखा तो नहीं है, उसका ध्यान रखने की शिक्षा भी इसलाम देता है। पड़ोसी किस नस्ल या धर्म का है, यह बात कोई मायने नहीं रखती है। लेकिन ऐसा लगता है कि तालिबान मार्का इसलाम को मानने वालों के लिए वही सब कुछ ठीक है, जो वह कर रहे हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि पूरी दुनिया में मुसलमान भी अल्पसंख्यक की हैसियत से रहते हैं। जब अमेरिका इराक या अफगानिस्तान में मुसलमानों पर बम बरसाता है तो पूरी दुनिया के मुसलमानों को दर्द होना स्वाभाविक बात है। मुसलमानों का भी यह फर्ज बनता है कि वे किसी मुस्लिम देश में दूसरे धर्म के लोगों पर होने वाले अत्याचार के विरोध में भी सामने आएं। यह नहीं हो सकता कि जब अपने पिटे तो दर्द हो और जब दूसरा पिटे तो आंखें और जबान बंद कर लें। भारत में ही पूरे पाकिस्तान की आबादी के बराबर मुसलमान हैं। ठीक है। यहां भी गुजरात जैसे हादसे होते हैं। लेकिन यह भी याद रखिए कि जब भी भारत में मुस्लिम विरोधी हिंसा होती है तो बहुसंख्यक वर्ग के लोग ही उनके समर्थन में आते हैं। लेकिन पाकिस्तान या बंगला देश में कोई तीस्ता तलवाड़ या हर्षमंदर सामने नहीं आता है। यही वजह है कि इन दोनों देशों में अल्पसंख्यकों की संख्या तेजी से घट रही है। अत्याचार से बचने के लिए उनके सामने धर्मपरिर्वतन ही एकमात्र रास्ता बचता है। सच बात तो यह है कि तालिबान मार्का इसलाम को मानने वाले लोग केवल दूसरे धर्म के लोगों को ही नहीं इसलाम धर्म को मानने वालों को भी नहीं बख्श रहे हैं। पाकिस्तान से आए हिन्दुओं को भारत कभी का आत्मसात कर चुका है। लेकिन विभाजन के वक्त भारत से गए उर्दू भाषी मुसलमानों को आज भी पाकिस्तान में मुहाजिर (शरणार्थी) कहा जाता है। उनको हर तरीके से प्रताड़ित किया जाता है। हालत यह हो गयी है कि मुहाजिर वहां के एक वर्ग में तब्दील हो गया है। यानि पंजाबी, पठान, सिंधी, ब्लूच के बाद मुहााजिर एक जाति हो गयी है। पाकिस्तान में हर रोज मरने वाले लोग का ग्राफ तेजी से बढ़ता जा रहा है। नब्बे के शुरु का वक्त मैंने पाकिस्तान के शहर कराची में गुजारा है। उस वक्त बेनजीर भुट्टो की सरकार थी। उनके दौर में मुहाजिरों पर जो जुल्म किए गए उसे देखकर रोंगटे खड़े जो जाते थे। मुहाजिर नौजवानों को निर्दयता से मारा जाता था। उस वक्त अखबार शहर के तापमान के साथ ही यह भी लिखता था कि आज कराची में कितनी हत्याएं हुईं। मुहाजिरों की हालत आज भी नब्बे के दशक वाली ही है। सुन्नी-शिया विवाद के चलते हजारों लोग मारे जा चुके हैं। एक-दूसरे की मस्जिदों पर बम फेंककर बेकसूर लोगों को मारना कौनसा जेहाद है, यह आज तक समझ नहीं आया। जबकि इसलाम साफ कहता है कि 'बेकसूर का कत्ल पूरी मानवता का कत्ल है।' हमारी तो समझ में नहीं आता है कि इन लोगों ने कौनसा इसलाम पढ़ लिया है। अब ऐसा इसलाम मानने वालों से यह उम्मीद करना कि वे दूसरे धर्म के मानने वालों के साथ बराबरी का सलूक करेंगे, बेमानी बात ही लगती है। लेकिन यही सोचकर पाकिस्तान को बख्शा भी नहीं जा सकता है। भारत सरकार की यह जिम्मेदारी बनती ही है कि वह पाकिस्तान में हिन्दुओं और सिखों पर होने वाले अत्याचार के मामले में पाकिस्तान सरकार के समक्ष अपना विरोध दर्ज करे। पाकिस्तान में सिखों की हत्याओं पर भारतीय मुसलमानों की चुप्पी चुभने वाली है। भारतीय मुसलमानों को सिखों की हत्याओं के लिए पाकिस्तान की पुरजारे निन्दा करने के लिए सामने आना वाहिए।
आओ उस बात की तरफ़ जो हममे और तुममे एक जैसी है और वो ये कि हम सिर्फ़ एक रब की इबादत करें- क़ुरआन