रमजानुलमुबारक के मौके पर आज हम बात करते हैं कि रोज़े किस तरह इंसान के ज़हन व रूह को कूवत बख्शते हैं।
आज का इंसान चारों तरफ परेशानियों में घिरा हुआ है। नौजवान को रोज़गार की तलाश, स्टूडेन्ट को पढ़ाई और इक्ज़ाम पास करने की फिक्र, बाप को बेटे के बिगड़ने की फिक्र, मां को बेटी की शादी की फिक्र। किसी को नौकरी जाने का टेंशन तो किसी के पास इतना काम कि दिन रात का सुकून गायब।
सोने पे सुहागा ये कि साइंस की ईजादों के गलत इस्तेमाल ने भी इंसान का जहनी सुकून छीन लिया है। सड़कों पर गाड़ियों का शोर, हर मिनट पर बजता फोन। लाउडस्पीकर, टेलीविज़न, इण्टरनेट, हर जगह इन्फार्मेशन और टेक्नालॉजी का दखल। अब आराम और सुकून के लिए कोई जगह नहीं। इंसान का दिमाग इन्फार्मेशन बम बन चुका है। किसी भी लम्हे बिखरने को तैयार।
नतीजा ये कि इंसान शिकार हो रहा है गुस्से, हाईपरटेंशन, नर्वस ब्रेकडाउन जैसी तरह तरह की बीमारियों का। जरा जरा सी बातों पर उसका पारा हाई हुआ जा रहा है। कहीं वह बीवी बच्चों को मार डालता है तो कहीं खुद ही सोसाइड कर लेता है।
इसीलिए सोसाइटी में लूटमार और रिश्वतखोरी आम हो गई है। मजाक मजाक में लोग कत्ल कर रहे हैं। रेप का ग्राफ दिन ब दिन बढ़ रहा है। इंसानों पर जुल्म करके लोग खुशी महसूस कर रहे हैं। अब तो इंसान के लिए इंसानियत की कोई कीमत नहीं रह गयी है। आखिर कहां जा रहा है हमारा ज़हन और हमारी सोसाइटी? एक बात तय है कि अनजाम इसका बहुत बुरा होना है।
तो सवाल पैदा होता है कि क्या सोसाइटी और इंसान के ज़हन की सफाई का कोई तरीका है हमारे पास? इसके लिए पहले इस सवाल का जवाब ढूंढना होगा कि सोसाइटी में कौन लोग जुर्म करते हैं? इसका आसान जवाब ये है कि जुर्म करने वाले वही लोग होते हैं जो बीमार होते हैं ज़हनी तौर पर या रूहानी तौर पर।
दरअसल दुनिया की सबसे बड़ी हेल्थ आर्गेनाइजेशन डब्ल्यू-एच-ओ- के मुताबिक सेहतमन्द आदमी वह होता है जो जिस्मानी, दिमागी, सामाजिक और रूहानी तौर पर सेहतमन्द हो। यानि साबित हुआ कि हर मुजरिम किसी न किसी तरीके का बीमार है। अब जिस्मानी बीमारी और कुछ हद तक ज़हनी बीमारी तो दवाओं से ठीक हो सकती है, लेकिन बाकी बीमारियों में दवाएं बेअसर होती हैं। इस लिए इनसान को कोई ऐसा तरीका चाहिए जो उसे हर लिहाज़ से सेहतमन्द रख सके।
दुनिया के तमाम मज़हब इस डायरेक्शन में कुछ उसूल बताते हैं। जैसे कि हिन्दू मजहब उपवास और योगा की बात करता है, जिसके जरिये इंसान अपना जिस्म और जहन मज़बूत कर सकता है। बौध धर्म की तपस्या का तरीका, ईसाई या जेविश मजहब का प्रेयर का तरीका दरअसल रास्ते हैं इंसान को ज़हनी और रूहानी सुकून देने के।
अब बात करते हैं इस्लाम की। वैसे तो इंसान की सेहत के लिए इस्लाम ने बेशुमार तरीके बताये हैं, लेकिन हम बात करते हैं सिर्फ रोज़े की। रोज़ा, जो कि अल्लाह की बेमिसाल रहमत है। रोज़ा, जो हर तरह से इंसान को सेहतमन्द रख सकता हैै।
रोज़ा सिर्फ दिनभर भूखे प्यासे रहने का नाम नहीं है। रोज़े में अल्लाह का हुक्म है कि आपके हाथ, पैर, आँख या किसी भी आज़ा से कोई गुनाह न हो। इन गुनाहों में शामिल हैं किसी की तरफ बुरी नज़र उठाना, किसी को बुरे अल्फाज़ कहना, किसी पर हाथ उठाना, ग़लत देखना, सुनना व सोचना या फिर गुस्सा करना।
देखा गया है कि इंसान जब भी कोई गलत काम करता है, किसी को परेशान करता है तो उसका असर उसके दिल व दिमाग पर पड़ता है। एक अजीब सी खराब कैफियत उसके ज़हन पर तारी होती है और उसके नर्वस सिस्टम पर असर डालती है। उसका नर्वस सिस्टम कमजोर हो जाता है। हकीकत ये है कि मुजरिम अपने साये से भी डरता है। अब चूंकि रोजे के दौरान इंसान हर तरह के गुनाहों से बचा रहता है, इससे उसके नर्वस सिस्टम को काफी हद तक फायदा पहुंचता है। इस दौरान इंसान का ज़हन पूरी तरह सुकून और आराम की हालत में होता है। इस मौके का फायदा उठाते हुए अगर इंसान अपने पिछले गुनाहों पर गौर करके तौबा कर ले तो वो बहुत सी दिमागी परेशानियों से निजात पा सकता है।
जुर्म इंसान को जहनी तौर पर बीमार कर देते हैं। फिर यह बीमारी बढ़ती जाती है और वह जुर्म पर जुर्म करता जाता है। इसीलिए गुनाहों को दलदल कहा गया है अगर इंसान दलदल में धंस जाये तो वह उसमें डूबता ही चला जाता है। लेकिन अल्लाह ने अपनी रहमत से रमजानुल मुबारक की शक्ल में इनसान को एक ऐसी रस्सी थमा दी है जिसको पकड़कर वह इस दलदल से बाहर निकल सकता है। अगर वह रोजे के दौरान गुनाहों से बचने का अपना इरादा आगे भी कायम रखे तो हमेशा के लिए वह मुत्तकी बन जायेगा और ज़हनी व रूहानी तौर पर सेहतमन्द हो जायेगा।
चन्द बातें और। रोज़े के दौरान की गयी इबादतें ज़हन को पूरी तरह आराम बख्शती हैं और कुछ वक्त के लिए इनसान दुनियावी फिक्रों और परेशानियों से आज़ाद हो जाता है। रोज़े के दौरान कुरान और दुआएं पढ़ने से ज़हन को सुकून और आराम मिलता है। कुछ देर के लिए दुनियावी परेशानियां उसके ज़हन से बहुत दूर हो जाती हैं और दिमाग़ तरोताजा हो जाता है। इसके अलावा बेकाबू जिंसी ख्वाहिशात दुनिया में बहुत से गुनाहों की वजह हैं। रोज़े के दौरान इंसान अपनी जिंसी ख्वाहिशात पर काबू पा लेता है। इसलिए जिस मुआशरे में सच्चे रोज़ेदार हों वहां रेप जैसे जुर्म पनप ही नहीं सकते।
रोज़े इंसान को उसके जिस्म पर पूरा कण्ट्रोल हासिल करने में मदद देते हैं। नतीजा ये कि रोज़ा इंसान को बेहतरीन ज़हन का मालक बना देता है। उसके लिए टेंशन और उलझन का कोई मतलब नहीं रह जाता। हद तो ये है कि इंसान अपने ज़हन पर इतना कण्ट्रोल कर सकता है कि बुरे ख्यालात और निगेटिव बातें उसके पास भी न फटकें।
रोज़ेदार कोई मामूली इंसान नहीं रह जाता। वह वाकई में अशरफुल मखलूक़ात कहलाने के लायक हो जाता है। उसकी विल पावर, उसका दिमागी सिस्टम इतना मज़बूत हो जाता है कि उसे लगता है वह दुनिया का हर काम कर सकता है। साथ ही रोज़े की सख्तियां इंसान को सख्तियों से लड़ने की ताकत देती हैं। वह भूख प्यास, गर्मी की शिददत हर तरह की सिचुएशन बर्दाश्त करते हुए अपना काम बा आसानी कर लेता है। उसका ठंडा ज़हन किसी भी पेचीदा हालात में सोच समझ कर फैसला लेने के काबिल हो जाता है।
रोज़ा और इस्लाम के दूसरे कानूनों पर अमल से इंसान किस हद तक मज़बूत आसाब का मालिक बन सकता है इसका मुज़ाहिरा हम देखते हैं करबला के मैदान में। जब हज़रत इमाम हुसैन (अ-स-) और उनके चन्द साथियों ने तीन दिन की भूख प्यास में बेमिसाल हिम्मत और सब्र का मुजाहिरा किया। सितम पर सितम उठाते रहे लेकिन दिमागी कूवत इतनी कि जरा भी अपने मकसद से नहीं हटे। शहादत के बाद उनके बेटे इमाम जैनुलआबिदीन (अ.स.) को कैदी बनाया गया। तीन दिन की भूख व प्यास, ऊपर से बीमारी की हालत में इमाम को कर्बला से शाम तक चौदह सौ मील के रास्ते पर पैदल चलाया गया। ये इमाम की ज़हनी ताकत थी कि इतनी मुसीबतें उठाने के बाद उन्होंने सब्र किया। और उसके बाद जब यज़ीद के दरबार में खुत्बा दिया तो इन्किलाब बपा हो गया। इमाम की ये विल पावर यकीनन इस्लाम की पावर थी।
तो इस तरह हम देखते हैं कि माहे रमजानुल मुबारक एक इन्सान के लिए अल्लाह की बेमिसाल रहमत है। जिसके लिए रब की बारगाह में जितना शुक्र किया जाये कम है।