आवाज़ के बारे में प्राचीनकाल से ही वैज्ञानिकों ने काफी रिसर्च की है। आवाज पानी की लहर की तरह होती है, ये बात ग्रीक फिलास्फर क्रिसिप्पस (240BC) को मालूम थी। अरस्तू (384-322BC) ने बताया कि आवाज़ हवा में पानी की लहरों की तरह आगे बढ़ती है और जब कानों से टकराती है तो आवाज़ सुनाई देती है। इन लहरों की ताकत आगे बढ़ने के साथ साथ कम होती जाती है। और बहुत ज्यादा दूरी पर ये ताकत इतनी कम हो जाती है कि आवाज़ सुनाई देना बन्द हो जाती है।
लेकिन इन तमाम खोजों के बावजूद आवाज़ के बारे में बहुत सी बातों से इंसान अंजान रहा। आवाज़ हवा में आगे बढ़ती है, यह तो लोगों को पता था, लेकिन हवा आवाज़ को आगे बढ़ाने का जरिया है यह किसी को पता नहीं था। या यूं कहा जाये कि अगर फिजा में हवा न हो तो आवाज़ आगे बढ़ेगी या नहीं, इस बारे में किसी ने गौर नहीं किया था। इतिहास के अनुसार सन 1654 में जर्मन साइंटिस्ट ओटो वान ने यह खोज की कि आवाज़ निर्वात में नहीं चल सकती। यानि उसको फिज़ा में आगे बढ़ने के लिये हवा ज़रूरी है।
लेकिन पुरानी इस्लामी किताबों के अध्ययन से ओटो वान की यह खोज संदेह के दायरे में आ जाती है। दरअसल ओटो वान से बहुत पहले इस्लामी विद्वानों को यह बात मालूम थी कि आवाज़ का हवा के बगैर फिज़ा में आगे बढ़ना नामुमकिन है। इमाम जाफर अल सादिक अलैहिस्सलाम आठवीं सदी में इस बात को बता चुके थे।
किताब तौहीदुल अइम्मा में इमाम जाफर अल सादिक (अ.स.) का कौल इस तरह दर्ज है कि ‘अगर हवा न हो जो आवाज़ को कानों तक पहुंचाती है तो कान कभी आवाज़ का अदराक नहीं कर सकते।’
कानों के बारे में आज भी साइंस पूरी तरह जानकारी हासिल नहीं कर पायी है। किस तरह से कान तेज बजते हुए आर्केस्ट्रा में किसी चीख की आवाज़ या फुसफुसाहट को सुन लेता है, इस बारे में आज भी साइंस कुछ खास पता नहीं कर पायी है।
इसी किताब तौहीदुल अइम्मा में इमाम जाफर अल सादिक (अ.स.) आगे कहते हैं, ‘कान का भीतरी हिस्सा कैदखाने की तरह क्यों टेढ़ा मेढ़ा बनाया गया है? इसीलिये न कि उसमें आवाज़ जारी हो सके और उस पर्दे तक पहुंच जाये जिससे आवाज़ सुनाई देती है और इसलिए कि हवा की तेज़ी का ज़ोर टूट जाये ताकि सुनने के पर्दे में खराश न डाले।’ यानि कानों की भीतरी बनावट टेढ़ी मेढ़ी होने के पीछे खास राज़ है, वह यह कि हवा का दबाव कान के पर्दे पर न पड़े और खालिस आवाज़ ही कान के पर्दे तक पहुंचे क्योंकि यह पर्दा बहुत नाज़ुक होता है और हवा का सीधा असर इसको चोट पहुंचा सकता है।
जैसा कि हम जानते हैं कि हवा में आवाज़ के अलावा बहुत सी लहरें मौजूद होती हैं। जैसे कि सूरज की रौशनी, अल्ट्रावायलेट, रेडियो वेव्स वगैरा। इनमें से आवाज़ ही ऐसी होती है जिसको आगे बढ़ने के लिये हवा की ज़रूरत होती है। बाकी लहरें हवा के बगैर खला (Vacuum) में भी आगे बढ सकती हैं। और इस वजह ये लहरें बहुत दूर तक बिना किसी तब्दीली के चली जाती हैं। लेकिन आवाज़ को चूंकि हवा की ज़रूरत होती है इसलिये ये बहुत दूर तक नहीं जा पाती। यह पूरा सिस्टम एक बहुत ही ऊंचे दरजे की इंजीनियरिंग का नमूना है जिसकी ईजाद वही कर सकता था जो इस पूरी कायनात का क्रियेटर है। इस इंजीनियरिंग की तरफ इमाम जाफर अल सादिक (अ.स.) इशारा कर रहे हैं इन जुमलों के साथ,
‘आवाज़ एक असर (कैफियत) है जो अजसाम (चीज़ों) के आपस में हवा में टकराने से पैदा होती है और हवा उसको कानों तक पहुंचाती है। और तमाम इंसान अपनी जरूरियात और मामलात के सिलसिले में दिन भर और रात के कुछ हिस्से तक बातचीत करते रहते हैं। तो अगर इस कलाम का असर हवा में बाकी रहता, जैसे तहरीर कागज पर लिखी जाती है तो तमाम दुनिया उससे भर जाती और उससे ज़मीन पर रहने वालों को बेचैनी पैदा होती, और उनको इस बात की ज़रूरत होती कि पुरानी हवा खत्म हो जाये और नयी हवा आये। और ये जरूरत उससे कहीं ज्यादा अहम है जो कागज के बदलने में होती है। क्योंकि तहरीर की बनिस्बत ज़बानी बातें ज्यादा की जाती हैं। लिहाज़ा खालिके कायनात ने एक ऐसा खफ्फी कागज बनाया है जो कलाम का इतनी देर तक हामिल रहे जितनी देर में अहले आलम की ज़रूरत पूरी हो और उसके बाद खत्म हो जाये। और हवा वैसी ही नयी की नयी साफ सुथरी हो जाये और हमेशा उन कलामों की मुतहम्मिल होती रहे जो उसमें वाकय होते हैं।’
यानि हवा एक ऐसे कागज़ का काम करती है जिसपर बातचीत लिखकर सामने वाले तक पहुंचा दी जाये और फिर वह बातचीत मिटकर वह काग़ज़ फिर से कोरा हो जाये, नयी बातों को लिखने के लिये।
जो लोग इस्लाम को बैकवर्ड क़रार देते हैं, उसे जाहिलों का मज़हब बताते हैं वह आकर पढ़ें तो सही प्राचीनकाल की इस्लामी किताबें। इस्लाम ने बहुत पहले जो साइंस दुनिया के सामने पेश कर दी, आधुनिक साइंस आज भी उससे पीछे ही है।