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हज़रत मुहम्मद मानव-जाति के उद्धारक

Written By इस्लामिक वेबदुनिया on शनिवार, 17 अक्टूबर 2009 | शनिवार, अक्टूबर 17, 2009

आश्चर्यचकित रह गयी कि अमेरिकी लेखकों के दुष्प्रचार के विपरीत अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्ल० मानव-जाति के महान उद्धारक और सच्चे शुभ-चिन्तक हैं। विशेष रूप से उन्होंने महिलाओं को जो सम्मान दिया है, उसकी पहले या बाद में कोई मिसाल नहीं मिलती। अल्लाह का लाख-लाख शुक्र है कि मेरी बातों से प्रभावित होकर अब तक लगभग 600 अमेरिकी महिलाएं इस्लाम के दायरे में दाखिल हो चुकी हैं।
अमीना जनां
मेरे माता-पिता प्रोटेस्टेन्ट ईसाई थे। ननिहाल और ददिहाल दोनों ओर धर्म की बड़ी चर्चा थी। हाई स्कूल की शिक्षा समाप्त हुई तो मेरा विवाह हो गया। और शादी होते ही मैं मॉडलिंग के पेशे से जुड़ गयी। अल्लाह ने मुझे सुन्दर बनाया था। फिर मैं मेहनत भी खूब करती थी। जल्द ही कारोबार चल निकला। पैसे की रेल-पेल हो गयी। गाड़ी, बंगला आदि सुख-सुविधाओं की सभी चीज़ें उपलब्ध हो गयीं। स्थिति यह हो गयी थी कि अपनी पसन्द का जूता खरीदने के लिए मैं हवाई जहाज़ से दूसरे शहर जाती थी। इसी बीच मैं एक बेटे और एक बेटी की मां भी बन गयी। परन्तु यह भी एक सच्चाई है कि नाना प्रकार की सुख सुविधाओं के बावजूद भी मैं संतुष्ट नहीं थी। कोई कसक थी जो मन को व्याकुल किये रखती थी। जीवन में शून्य का आभास बढ़ता जा रहा था। इसी बेचैनी में मैंने मॉडलिंग का पेशा त्याग दिया। और ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में लग गयी। अब मैं विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों में धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए जाने लगी। वहां पहुंचकर अपनी शिक्षा पूरी करने का विचार आया। मैंने विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया। उस समय मेरी आयु 30 वर्ष थी। अब मेरा सोभाग्य कहिए कि मुझे एक ऐसी क्लास में दाखिला मिला जिसमें कालों और एशियाई मूल के छात्रों की संख्या अच्छी-खासी थी। यह देखकर मैं बहुत परेशान हुई, परन्तु अब क्या हो सकता था। मेरी उलझन उस समय और अधिक बढ़ गयी जब मुझे पता चला कि उनमें कई छात्र मुसलमान भी हैं। मुझे मुसलमानों से अत्यधिक घृणा थी। आम यूरोपीय सोच के अनुसार मेरा भी यही विचार था कि इस्लाम बर्बरता एवं जिहालत वाला धर्म है और मुसलमान असभ्य, अय्याश, महिलाओं पर अत्याचार करने वाले लोग होते हैं। अमेरिका और यूरोप के इतिहासकार एवं लेखकगण मुसलमानों के बारे में आमतौर पर यही कुछ लिखते हैं। बहरहाल मैंने अनेक उलझनों के साथ अपनी शिक्षा शुरू की। उस समय मैंने अपने आपको समझाया कि मैं एक मिशनरी हूं। क्या पता कि अल्लाह ने मुझे इनके सुधार के लिए यहां भेजा हो। इसलिए मुझे परेशान नहीं होना चाहिए। अतएव मैंने उस दृष्टि से परिस्थितियों का आकलन करना शुरू किया, लेकिन परिस्थितियों के आकलन के बाद मैं आश्चर्यचकित रह गयी। मुस्लिम छात्रों का रवैया अन्य छात्रों से बिल्कुल भिन्न था। वे सुलझे हुए थे और सभ्य एवं सम्मानजनक तरीके से रहते थे। वे आम अमेरिकी युवकों के विपरीत युवतियों से मेल-जोल को पसन्द नहीं करते थे। न वे आवारा थे, न ऐशपसन्दी के रसिया। मैं मिशनरी भावनाओं से उनसे बात करती। उनके सामने ईसाइयत के गुण-गान करती, तो वे बड़े सम्मानजनक ढंग से मिलते और बहस में उलझने के बदले मुस्कुराकर चुप हो जाते। मैंने अपने प्रयासों को विफल होते देखा तो सोचा कि इस्लाम का अध्ययन करना चाहिए ताकि उस की कमियों को जान सकूं और उन मुस्लिम छात्रों को नीचा दिखा सकूं। मगर दिल के किसी कोने में यह एहसास भी था कि ईसाई पादरी, लेखक और इतिहासकार तो मुसलमानों को वहशी, गंवार, जाहिल और न जाने किन-किन बुराइयों में लिप्त बताते हैं लेकिन अमेरिकी समाज में पले-बढ़े इन काले मुस्लिम नवजवानों में तो मुझे कोई विशेष बुराई दिखायी नहीं देती। बल्कि यह तो अन्य छात्रों से अधिक सुलझे हुए एवं श्रेष्ठ दिखायी देते हैं। फिर क्यों न स्वयं इस्लाम का अध्ययन करूं। और वास्तविकता तक पहुंचू। अतएव मैंने सबसे पहले कुरआन मजीद का अंग्रेजी अनुवाद पढऩा शुरू किया। और मैं आश्चर्यचकित रह गयी कि यह किताब दिल के साथ-साथ दिमाग को भी अपील करती है। ईसाइयत पर सोच-विचार के दौरान और बाइबल का अध्ययन करते समय मन में न जाने कितने विचार पैदाहोते थे, परन्तु किसी पादरी या किसी धार्मिक विद्वान के पास उन प्रश्रों का कोई जवाब न था। और यही प्यास आत्मा को तृप्त नहीं होने देती थी। परन्तु जब मैंने कुरआन पढ़ा तो उन सारे प्रश्रों के ऐसे जवाब मिल गये जो बुद्धि और विवेक से मेल खाते थे। और अधिक संतुष्टि के लिए अपने मुस्लिम सहपाठियों से बातचीत की । इस्लाम के इतिहास का अध्ययन किया, तो ऐसा आभास हुआ कि अब तक मैं अंधेरों में भटक रही थी। इस्लाम और मुसलमानों के बारे में मेरा दृष्टिकोण अन्याय और अज्ञानता पर आधारित था। और अधिक जानकारी के लिए मैंने हज़रत मुहम्मद सल्ल० की पाक जीवनी और उनकी शिक्षाओं का अध्ययन किया। और यह देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गयी कि अमेरिकी लेखकों के दुष्प्रचार के विपरीत अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्ल० मानव-जाति के महान उद्धारक और सच्चे शुभ-चिन्तक हैं। विशेष रूप से उन्होंने महिलाओं को जो सम्मान दिया है, उसकी पहले या बाद में कोई मिसाल नहीं मिलती। माहौल की मजबूरियों की बात दूसरी है, वरना मैं स्वभाव से बहुत शर्मीली हूं। और पति के सिवा किसी और से घनिष्ठता मुझे पसन्द नहीं है। अतएव जब मैंने पढा कि अल्लाह के रसूल सल्ल स्वयं भी बहुत शर्मीले थे और महिलाओं के लिए विशेष रूप से पाकीज़गी और हया की ताकीद किया करते थे, तो मैं बहुत प्रभावित हुई। और उसे महिलाओं के स्वभाव एवं प्रकृति के अनुरूप पाया। अल्लाह के रसूल हजऱत मुहम्मद सल्ल० ने महिलाओं को कितना ऊंचा मुका़म दिया है। इसका अनुमान निम्रलिखित हदीसों से होता है। जन्नत मां के कदमों में है। तुममें सबसे अच्छा व्यक्ति वह है, जो अपनी पत्नी और घर वालों से अच्छा सलूक करता है। मैं कुरआन मजीद और अल्लाह के रसूल सल्ल० की शिक्षाओं से संतुष्ट हो गयी। इस्लामी इतिहास के किरदारों ने मुसलमानों के बारे में मेरी सारी ग़लतफहमियों दूर कर दी। और मेरी अन्तरात्मा के सभी प्रश्रों के उत्तर मिल गये, तो मैंने इस्लाम स्वीकार करने का फैसला कर लिया और अपने मुस्लिम सहपाठियों को अपने फैसले से अवगत करा दिया। उन मुस्लिम छात्रों ने 21 मई 1977 ई० को इलाके के चार जि़म्मेदार मुसलमानों को बुला लिया। उसमें से एक नूर मस्जिद के इमाम थे। मैंने उनसे कुछ प्रश्र किये और कलिमा शहादत पढ़कर इस्लाम के आग़ोश में आ गयी। मेरे इस्लाम स्वीकार करने पर मेरे परिवार वालों पर तो मानो बिजली गिर पड़ी। मेरा पति मुझे बेहद प्यार करता था। मेरे इस्लाम स्वीकार करने की खबर से उसे दिली सदमा पहुंचा। मैं उसे पहले भी इस्लाम में लाने की कोशिश करती थी। अब भी मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिश की। परन्तु उसका गुस्सा किसी तरह ठंडा नहीं हुआ। और उसने मुझसे अलग रहने का फैसला कर लिया। और मेरे विरूद्ध अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। अदालत ने अस्थायी तौर पर बच्चों के लालन-पालन की जि़म्मेदारी मेरे ऊपर डाल दी। मेरे पिता भी मुझे बहुत चाहते थे, परन्तु इस सूचना ने उन्हें आपे से बाहर कर दिया। और गुस्से में मुझे शूट करने अपनी दो नाली बन्दूक लेकर मेरे घर चढ़ दौड़े। किसी तरह मैं बच तो गयी। लेकिन वे हमेशा के लिए मुझसे नाता तोड़कर चले गये। मेरी बड़ी बहन मनौवेज्ञानिक थी। उसने यह घोषणा कर दी कि मैं किसी दिमाग़ी बीमारी से पीडि़त हूं। और गंभीरतापूर्वक मुझे साइको इंस्टीटयूट में दाखिला कराने के लिए दौड़-धूप शुरू कर दी। मेरी शिक्षा पूरी हो चुकी थी। मैंने एक ऑफिस में नौकरी कर ली। एक दिन मेरी गाड़ी रास्ते में खराब हो गयी। और मैं देर से ऑफिस पहुंची। इसी आरोप से मुझे नौकरी से निकाल दिया गया। मुझे यह समझते देर न लगी कि मुझे नौकरी से निकाले जाने का असल कारण ऑफिस देर से पहुंचना नहीं, बल्कि इस्लाम स्वीकार करना था। मेरे साथ एक परिस्थिति यह भी थी कि मेरा एक बच्चा जन्म से ही अपंग था। वह मानसिक रूप से विकसित नहीं था। अमेरिका के कानून के अनुसार तलाक का मुकदमा लंबित होने से मेरा बैंक खाता सील कर दिया गया था। नौकरी भी छूट गयी तो मैं बहुत घबराई और रोते हुए अल्लाह के सामने सजदे में गिर गयी। अल्लाह ने मेरी दुआ सुन ली और मेरी जानने वाली एक दयालु महिला के सहयोग से मुझे इस्टर सेल मे एक मुनासिब नौकरी मिल गयी। कम्पनी की ओर से मेरे अपंग बच्चे का इलाज भी होने लगा। कुछ दिनों के इलाज के बाद डॉक्टरों ने उसके दिमाग का ऑपरेशन करने का फैसला किया। और अल्लाह के फ़जल से ऑपरेशन सफल रहा और बच्चा ठीक हो गया। इसी तरह दो साल बीत गये। दो वर्ष बाद दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र की एक आज़ाद अदालत ने मेरे मामले में फैसला दिया कि यदि बच्चों को अपने साथ रखना चाहती हो तो इस्लाम त्यागना होगा। अदालत का यह फैसला मुझ पर पहाड़ की तरह टूट पड़ा लेकिन फिर भी अपने को संभाल लिया। एक समय था कि मैं रविवार को आराम करने के बजाय संडे स्कूल में बच्चों को ईसाइयत के पाठ पढ़ाया करती थी। आज अल्लाह की कृपा से रविवार इस्लामिक सेन्ट्रों में गुजारती हूं और मुस्लिम बच्चों को दीनी शिक्षा के अलावा अन्य विषय भी पढ़ाती हूं। यह भी अल्लाह की ही तौफीक है कि मैंने विभिन्न जगहों पर मुस्लिम वीमेन स्टडी सर्किल कायम किए हैं। जिनमें गैर-मुस्लिम महिलएं भी आती हैं। मैं उन्हें बताती हूं कि इसी अमेरिका में सौ-सवा सौ साल पहले औरतों की खरीद-फरोख्त होती थी। एक औरत को घोड़ी से भी कम मूल्य यानी 150 डॉलर में खरीदा जा सकता था। जब मैं यह तुलनात्मक आंकड़े पेश करती हूं तो अमेरिकी महिलाओं के मुंह अश्चर्य से खुले रह जाते हैं। वह इस सिलसिले में शोध करती हैं, अध्ययन करती हैं और वे इस्लाम स्वीकार कर लेती हैं। अल्लाह का लाख-लाख शुक्र है कि मेरी बातों से प्रभावित होकर अब तक लगभग 600 अमेरिकी महिलाएं इस्लाम के दायरे में दाखिल हो चुकी हैं।
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