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चाँद तारा का निशान हिन्दुस्तान में कैसे आया?

Written By Mohammed Umar Kairanvi on रविवार, 25 अक्तूबर 2009 | रविवार, अक्तूबर 25, 2009

पहले सप्ताह के चाँद का निशान और तारे का निशान प्राचीन काल से पूरी दुनिया में अलग अलग जगहों पर अलग अलग धर्मों को मानने वाले मूर्तिपूजकों का निशान रहें है। जब वैज्ञानिकों ने दुनिया के खोये हुए शाहरों की खुदाई की तो पूरी दुनिया में शायद ही कोई ऐसा प्राचीन नगर रहा हो जिसमें चाँद देवता के रूप में ना पूजा जाता हो। प्रचीन सभ्यताओं में चाँद और तारे की पूजा आम थी और इन दोनों को सबसे ज्यादा अहमियत दी जाती थी। चाँद के उपर तारे का ताल्लुक शुक्र ग्रह से है क्योंकि रात के आसमान में सबसे ज्यादा चमकदार ये ही होता है और इसकी खास बात एक और ये है कि ये चाँद की तरह घटता बढता रहता है। इसिलिए इसे चाँद की बेटी या बीवी या बहन माना जाता रहा है। कहीं इसे पुरूष रूप में मानते है तो कहीं ये स्त्री रूप में पूजा जाता है।



3000 ईसा पूर्व के समय में सुमेरी सभ्यता में तारे का निशान देवी इनन्ना का माना जाता था और बेबीलोनी सभ्यता में इसका नाम देवी इस्टर मिलता है । शुक्र यानि वीनस ग्रह प्राचीन सितारों की पूजा करने वाले लोगों की पहली पसंद रहा है। और इसका आसमान में निकलना और छिपना और इसका हर रोज नए नए रूप में आना इनके लिए भविष्य जानने के संकेतों का काम करता था और ये भाग्य बताने वाले लोगों का मुख्य देवी या देवता रहा है।


प्राचीन काल में तुर्की लोग प्रकृतिक शाक्तियों की पूजा करते थे और ये मध्य एशिया से साइबेरिया तक फैले थे । ये लोग खुदा के लिए ‘तेंगरी’ शब्‍द का इस्तेमाल करते थे और इनके बहुत सारे खुदा थे जैसे ये लोग सूरज को ‘कुन तेंगरी’ चाँद को ‘ऐ तेंगरी’ और आसमान के मालिक को ‘कोक तेंगरी’ कहते थे। ये लोग राजा को कोक तेंगरी का प्रतिनिधि मानते थे और पृथ्वी पर राजा खुदा की तरफ से मुर्करर एक नुमाइनन्दा होता था और एक तरह से धरती का खुदा होता था और राजा अपने नाम भी आसमानी खुदाओं के नाम पर रखते थे जैसे तुमेन तान्गरीकत-240 -210 ईसा पूर्व, बातुर तान्गरीकत(210-174 ईसा पूर्व= कोक खान)174-161 ईसा पूर्व= कुन खान)161-126 ईसा पूर्व=


मध्य एशिया में चाँद और तारे के निशान को विभिन्न रंगों के परचमों पर दशार्या जाता था और चाँद के साथ तारे के कोण भी अलग अलग होते थे जिसके पीछे इन लोगों एक बडा खुबसूरत तर्क था।
ये लोग दिशाओं के बारे में एकमत नही थे कुछ कबीले 4 दिशा मानते थे तो कुछ 5, 8 या 10 मानते थे इसके साथ साथ इन लोगों ने अलग अलग दिशा के लिए एक खास रंग को अहमियत दे रखी थी जैसे पूर्व के लिए ये नीला रंग पश्चिम के लिए सफेद रंग)अक= दक्षिण के लिए लाल) कीजिल= और उत्तर के लिए ये काला रंग )कारा= को खास अहमियत देते थे और इसिलिए मध्य एशिआई इन कबीलें के झण्डों का रंग अलग अलग होता था और इन पर बने चाँद के साथ तारे के कोनों की संख्या अलग अलग होती थी ।

जिसका प्रभाव आज भी देखने को मिलता है।और इसी परम्परा को तब भी जारी रखा गया जब मध्य एशिया में तुर्की में संगठित साम्राज्यों का उदय हुआ।
ये लोग चाँद सितारों के पुजारी थे और इस निशान को ये लोग अपनी इबादतगाहों और कब्रों और विशेष धार्मिक स्थानों पर लगाते थे ।
तुर्की में हरन नामक प्राचीन चाँद तारे की इबादत करने वालों का आलमी केन्द्र रहा है यहां पर 3000 ईसा पूर्व में भी चाँद सितारों की पूजा के सबूत मिले हैं । हरन वासियों ने इस धर्म को और ज्योतिष को सुमेरीयों से अपनाया था । और इस्लाम के उदय के बाद ही इन्होनें इस धर्म को त्यागा था मगर इन्होने कभी भी अपने निशान चाँद तारे और लूटमार की प्रथा को नही छोडा । हालाकि ये लोग इस्लाम में दाखिल हो चुके थे ।




तुर्की साम्राज्य के झण्डें
यूं तो तुर्की के हर कबीले का अपना चाँद तारे वाला झण्डा रहा है मगर जब जिस कबीले ने संगठित राज्य किया तो उसने अपनी परम्परा के अनुसान राष्ट्रीय झण्डा आपनया जो निम्नलिखित है।

नेबोनिदस साम्राज्य 550 ईसा पूर्व=
मध्य एशिया में सम्राट नेबोनिदस ने भारी राज्य किया और इसने अपनी राजधानी तुर्की के हरन को बनाया । जो यहां पर चाँद तारे के मानने वालों का हजारों साल से काबा रहा था। इसका निशान पहले सप्ताह का चाँद था और इस निशान को इबादतगाहों, झण्डों आदि पर लगाया जाता था

हुन साम्राज्य 420-552 ईसवी
इनके झण्डें का रंग सफेद था और उस पर पांच कोनों वाला सुनहरा तारा बना होता था।


खाज़र साम्राज्य 602-1016 ईसवी
इनके झण्डें का रंग नीला था और उस पर पांच कोनों वाला सफेद तारा बना होता था।

गज़नी साम्राज्य 962- 1283 ईसवी
इनके झण्डें का रंग हरा था और उस पर चाँद और मोर का निशान बना होता था।

सेलजुक साम्राज्य 1040-1157 ईसवी
और रम के सेलजुकों 1077-1308 ईसवी इनके झण्डों पर चाँद के साथ तारा बना होता था ।इस काल के सिक्कों पर 5,6 और 8 कोनों वाला सितारा और चाँद बना होता था।

होर्ड साम्राज्य 1224-1502 ईसवी
इनके झण्डें का रंग सफेद था और उस पर लाल रंग का चाँद बना होता था उसके उपर एक काले रंग का गोल सूरज बना होता था।


उसमानी तुर्क साम्राज्य 1299-1922 ईसवी
इनके झण्डें का रंग लाल था और उस पर 8 कोनों वाला तारा बना होता था।
और आखिर में तुर्की के गणतंत्रात्रिक देश बन जाने के बाद इसके झण्डें पर बहस के बाद लाल रंग के कपडे पर सफेद रंग का चाँद तारे का निशान जिसमें पांच कोने बने हैं को अपना लिया गया । जो आज तक प्रचलन में है।

हिन्दुस्तान में चाँदतारा
हिन्दुस्तान के मुसलमानों ने चाँद तारे की परम्परा को मक्का या मदीना से आए धर्म प्रचारकों से नही ली बल्कि इसका स्रोत तुर्की कबीले रहे हैं।
पूरी दुनिया में जब इस्लामी हुकुमतों का दौर चल रहा था, तो उस वक्त हुकुमत करने वाले और इस्लम का प्रचार के लिए जिहाद करने वाले लोगों में फर्क करना बडा ही मुश्किल काम है।
पूरी दुनिया में तुर्क अपने वहशीपन के लिए मशहूर रहे हैं । अगर गौर करें तो भारत में आने वाले तुर्क सरदारों का असल मकसद इस्लाम का प्रचार नही था बल्कि उनका असल मकसद हुकुमत हासिल करना था ।
इनकी फौज पूरी तरह इस्लामी नही थी बल्कि इन्होने अपने स्थानीय कबीलों के साथ समझौता करके या उनके सरदारों को हराकर उनकी फौजें हासिल की थी । और हिन्दुस्तान फतह करने के लिए चढायी करते रहते थे । ये आपस में भी लडते रहते थे जिसके सबूत इतिहास की किताबों में भरे पडे है।

तुर्को ने की दिल्ली सल्तनत की शुरूआत
998 ईसवी में महमूद गज़नी साम्राज्य का शाससक बना। इसने भारत के एक बडे हिस्से पर जीत हासिल की और भारत में तुर्की हुकुमत की नींव रखी ।
इसके बाद मौहम्मद गौरी ने हिन्दुस्तान में आकर जंग लडी और फतह हासिल की । सन 1206 में मुहम्मद गौरी के एक गुलाम कुतुबुददीन ऐबक उसका उत्तराधिकारी बना और उसने दिल्ली सल्तनत की बागडोर सम्भाली , ऐबक के बाद सन 1210-1236 ईसवी तक उसके खलीफा इल्तुतमिश ने हुकुमत की इसके बाद अन्य अनेक तुर्को ने राज किया। भारत में एक संगठित राज्य की स्थापना में तुर्को ने बडा योगदान दिया।
मै आपको ये बता रहा हूं कि तुर्क मुसलमान ही थे जिन्होनें सबसे पहले यहां पर हुकुमत की, तुर्को की सेना में सभी धर्मो के लोग काम करते थे । और वे लोग तुर्की संस्कृति को भारत में लाए थे ।
क्योंकि तुर्क भले ही मुसलमान बन गए हों उन्होने अपनी संस्कृति कभी नही छोडी और अपने खून और सभ्यता को दुनिया में सबसे बेहतर समझते थे ।
चांद तारे का ये निशान जिसके खिलाफ इब्राहीम अलै0 ने 4100 साल पहले जददोजहद की थी और अल्लाह के पैगम्बर हज़रत मुहम्मद स0 ने आज से 1400 साल पहले न जाने कितनी जंगें लडी थी और काबे को इन से पाक किया था। और उनके बाद न जाने कितने सहाबी जो तुर्की, सीरिया, रोम, फारस, ईराक, जोर्डन, सउदी अरब आदि में इस्लाम का पैगाम देने के लिए गए और उन्होनें वहां पर चाँद सूरज और सितारों के पूजने वालों के खिलाफ जंगे लडी और उन्हें एक अल्लाह की पूजा करना सिखाया , और न जाने चांद तारों के पुजारियों के खिलाफ छिडे इस अभियान में कितने सहाबियों और उनके ‘शैदाइयों ने अपनी जान कुर्बान की थी।
तुर्क सरदारों ने उसी निशान को बडी चतुराई से फिर से मुसलमानों की मस्जिदों और झण्डों पर पहूंचा दिया ।
इस पर ज्यादा शोध की जरूरत है और उलेमाओं को चाहिए की इस निशान को कतन हराम करार दें मस्जिदों और घरों से इसे बाहर निकालने का हुक्म जारी करें । और ऐसा नही किया जाता तो आने वाले दिनों में गैरूल्लाह के दूसरे निशानात भी धीरे धीरे हमारी इबादतगाहें कब्जा लेंगें। और हमारी कौम फिर से शिर्क में डूब जाऐगी।

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उलमाओं का फतवा चाँद तारा मुसलमानों का निशान नहीं है
thanks umar saif ''चाँद तारा का निशान हिन्दुस्तान में तुर्क हमलावर लाए थे'' बुलंद भारत,
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