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मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी real-hero-islam

Written By Mohammed Umar Kairanvi on मंगलवार, 17 नवंबर 2009 | मंगलवार, नवंबर 17, 2009

क़लम और ज़बान से धर्म की तो तलवार से देश के लिये अंग्रेजों से टक्‍कर लेने वाली शख्सियत, जिसे शिया,सुन्‍नी,बरेलवी, देवबंदी यहां तक कि इस्‍लाम से निकाले गये अहमदी भी अपना मानते है के बारे में जरूरी है जान लिया जाए, मेरी जानकारी में नये उलमा यानी गदर से अब तक ऐसी कोई आलिम शख्सित नहीं हुई जिसे दूसरे मसलकों वालों ने भी इतना प्‍यार दिया हो, साजिश के तहत इन से संबंन्धित बहुत कुछ मिटा दिया गया था, यही एक कारण है शायद इनके बारे में अधिकतर अन्‍जान हैं, लेख कैराना ब्लाग पर पहले से था, इधर अधिक तक पहुंचेगा ऐसा अनुमान है, प्रतिक्रिया से नवाजि़ये..... मुहम्‍मद उमर कैरानवी
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हज़रत मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी

योद्धा सृष्टा, इमामुल मनाजिरीन और बानीये दारूल उलूम हरम मदरसा सौलतिया मक्क़ा मुअज्जमा हज़रत मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी जमादीउल अव्वल 1233 हिजरी को कस्बा कैराना (जिला मुजफ़्फ़रनगर, यू.पी.) में पैदा हुये। आप के जद्दे आला (पूर्वज) शेख अब्दुर्रहमान गाजरोनी थे जो सलतन्त महमूद के साथ हिन्दोस्तान आये और पानीपत में निवास कर लिया आप के जन्म से पूर्व माता ने सपना देखा कि तेरे यहाँ चाँद समान पुत्र पैदा होगा और उसका प्रकाश समस्त संसार में फैलेगा! मौलाना रहमतुल्ला ने 12 वर्ष की आयु में कुरान मजीद स्मरण कर दीनियात और फारसी की प्राथमिक पुस्तकें अपने बडों से पढ़ी तत्पश्चात शिक्षा ग्रहण हेतु देहली प्रस्थान किया और मौलाना मौहम्मद हयात साहब के मदरसे में प्रविष्ट हुये, मौलाना मौहम्मद हयात के मदरसे के विषय में सर सैयद ने लिखा है कि आप की शिक्षा के प्रसार से निम्न श्रेणी का शिक्षार्थी उस वक्त के विद्वानों से उच्च कोटि का माना जाता था। दूसरे महत्वपूर्ण शिक्षक मौलाना अब्दुर्रहमान चिश्ती थे जो उस्ताद शाहे वक्त हयात साहब के शिष्यों मे थे और सम्पूर्ण ज्ञान में दक्षता रखते थे। हकीम फैज मौहम्मद साहब जो कि अपने जमाने के प्रसिद्ध एवं योग्य चिकित्सक थे, उन से ज्ञानर्जन किया। आप का शजरा नसब (वंश लता ) से ज्ञात होता है कि हर युग में इस वंश ने चिकित्सा सेवा की है मुगल बादशाह जहाँगीर के वज़ीर नवाब मुकर्रब खाँ कैरानवी ने चिकित्सकीय सेवा के साथ साथ महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न किये थे। लेखक लोकारनम से गणित की शिक्षा पायी, दूषित वातावरण और हिन्दोस्तान में ईसाईयत के बढते हुये प्रभुत्व को रोकने की चिंता ने आपको इस का अवसर न दिया कि आप अपनी शिक्षा को यथावत जारी रख सकें। दरबार कैराना की मसजिद में मौलाना ने एक दीनी मदरसा स्थापित किया इस मदरसे से लाभान्वित शिक्षार्थियों में मौलाना अब्दुस्समी, लेखक ‘हम्द बारी’ योग्य विद्यार्थी प्रसिद्ध हुये। मौलाना मरहूम की शादी 1256 हिजरी में अपनी खाला की लडकी से हुयी देहली में महाराजा हिन्दुराव के यहाँ अमीर मुन्शी बन कर रहे कुछ घरेलू मजबूरियों के कारण मौलाना को कैराना वापिस आना पडा, कैराना पहूँचकर पठन तथा पाठन के साथ रददे नसारा ;ईसाईयत के विरोध मेंद्ध पर महत्वपूर्ण पुस्तक, इजालतुल औहाम लिखनी शुरू की इस पुस्तक की छपाई के दौरान ही मौलाना बहुत बीमार हो गये एक रोज मौलाना फजर की नमाज के पश्चात रोने लगे सम्बन्धियों ने समझा कि आप जीवन से निराश हो गये हैं। आपने बताया कि ब खुदा स्वस्थ होने का कोई लक्षण नहीं परन्तु आराम होगा इन्शा अल्लाह रोने का कारण यह है कि सपने में हजूर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम तशरीफ लाये, हजरत सददीके अकबर साथ हैं। हजरत फरमाते हैं ए जवान तेरे लिये रसूलुल्लाह की यह खुशखबरी है अगर तकलीफ ‘इजालतुल औहाम’ की वजह है तो वह आराम की वजह भी होगी, अल्हम्दु लिल्लाह वह स्वस्थ हो गये। इस पुस्तक में ईसाइयत के अकसर प्रश्नों के उत्तर हैं। इजालतुल औहाम के छपने से पहले ही देहली में काफी प्रसिद्धी हो गयी जिस का विरोध भी प्रारम्भ होगया इस कारण मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी ने उस समय के योग्य विद्वान मौलाना नूरूल हसन साहब कांधलवी को छपाई हेतु तैयार कागजात संशोधन के लिये भेजे थे, मौलाना रहमतुल्लाह साहब इजालतुल औहाम की छपाई के विषय में देहली आये तो उन की भेंट काक्टर वजीर खाँ से हुयी जो मौलाना रहमतुल्लाह के सच्चे सहायक मित्र सिद्ध हुये। डाक्टर साहब आगरे में अंग्रजी चिकित्सालय में प्रतिष्ठित पद पर सुशोभित थे। अंगे्रजी की उच्च शिक्षा के कारण अंगे्रजी अवतरणों की व्याख्या करने में मौलाना के सहायक बन गये मौलाना ने उनको कई स्थान पर रहमत के फरिशत जैसा बताया है। डाक्टर वजीर खाँ जब डाक्टरी की डिग्री लेने इंग्लेण्ड गये तो वहाँ से इसाईयों की बहुत सी धार्मिक पुस्तकें साथ लेते आये उन पुस्तकों का अवलोकन आगरे के मुनाजिरे (तर्क वितर्क)में बहुत काम आया, डाक्टर साहब अंग्रजी के अलावा इबरानी यहूदी भाषा भी जानते थे। आगरे में ईसाई पादरी, उलमा के मौनधारण से अनुचित लाभ उठाते थे और जनता में परोपेगन्डा करते फिरते थे कि हमारे धर्म की सत्यता का भय इतना है कि हिन्दोस्तानी विद्वान हमारे तर्क का उत्तर नहीं दे सकते और अपने धर्म इस्लाम की सत्यता सिद्ध नहीं कर सकते इसी बीच मौलाना रहमतुल्लाह वजीर खाँ के निमनत्रण पर आगरे गये, आगरे में मौलाना के दो मुनाजरे हुये जो कि छोटा मुनाजरा, बडा मुनाजरा के नाम से प्रसिद्ध हैं। छोटा मुनाजरा दो तीन पादरी मौलाना रहमतुल्लाह और डाक्टर वजीर खाँ के बीच हुआ जिस में पादरियों को पराजय का मुँह देखना पडा लेकिन यह बात उन लोगों तक ही सीमित रही इस कारणवश मौलाना ने बडे मुनाजरे की तैयारी की ताकि दुनिया देखे और सुने। मौलाना की कोशिशों से पादरी फन्डर आम मुनाजरे के लिये तैयार हुआ शर्त यह तय पायी कि जो हार जायेगा दूसरे का धर्म स्वीकार कर लेगा। मुनाजरा तीन दिन चलना था मगर दो रोज की पराजय ने पादरियों को तीसरे दिन मुँह दिखाने के काबिल न छोडा और वह न आये। मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी और डाक्टर वजीर खाँ ने इन्जील, बाईबिल के जो नुसखे जमा किये थे उन्हें भरे मजमें में दिखाकर यह साबित किया कि किसी में कुछ हटा दिया गया किसी में कुछ बढा दिया गया, भरे मजमे में पादरियों के इन्जील में परिवर्तन स्वीकार करना पडा। मुनाजिरे(तर्क वितर्क) से पादरियों की शिकस्त का लाभ यह हुआ कि पादरियों का जोर शोर घट गया और उन्होंने धर्म प्रचार व प्रसार की पुस्तकें जो अधिकतर बाँटते थे एक दम बाँटना छोड दी, मौलाना और भी बडा मुनाजरा करना चाहते थे मगर पादरी फान्डर हिन्दुस्तान ही से चला गया बाद में मौलाना रहमतुल्ला कैरानवी साहब से कुस्तुनतुनिया में पादरी फान्डर टकराता के मौलाना की आगमन की खबर मिलते ही वह वहाँ से भी चला गया। इसाईयत की रही सही कसर मौलाना के शागिर्दो ने तोड दी। मौलाना शरफुल हक़ वालिद इमदाद साबरी ने मौलाना रहमतुल्लाह से मुनाजरे की इजाजत लेकर इसाईयों से सैकडों मुनाजरे किये अल्हमदु लिल्लाह सबमें पादरियों को हार हुई। मौलाना रहमतुल्लाह साहब की पुस्तकें और मुनाजरे ईसाईयों के उत्तर में कलमी जिहाद था और प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम 1857 की भूमिका साबित हुई। मेरठ के धर्म योद्धाओं ने स्वतन्त्रता का युद्ध प्रारम्भ कर दिया। अन्य यौद्धओं के साथ मौलाना रहमतुल्ला कैरानवी ने भी स्वतन्त्राता संग्राम में बढ चढकर हिस्सा लिया और जंग में अपने मित्रा डा.वजीर खाँ और मौलवी फेज अहमद बदाँयूनी के साथ स्वतन्त्राता संग्राम मे सम्मिलित हुए। कस्बा कैराना में जमींदारी शेखों व गूजरों के हाथों में थी जिनमें नैतिक गुण तथा उत्साह यौवन पर था। थाना भवन और कैराना का एक मोर्चा स्थापित किया गया योद्धा मुकाबला करते रहे। शामली की तहसील पर हमला किया गया। थाना भवन का मोर्चा हाजी इमदादुल्ला मुहाजिर मक्की तथा कैराना का मोर्चा मौलाना रहमतुल्ला कैरानवी संभाले हुए थे। उस जमाने में शाम की नमाज के बाद धर्म यौद्वाओं के संगठन व दीक्षा के लिए नक्कारे की आवाज पर एकत्रित किया जाता और ऐलान होताः ‘‘मुल्क खुदा का और हुक्म मौलवी रहमतुल्लाह का’’ शामली की तहसील तोडने में हाफिज जामिन साहब शहीद हुए, इन्हीं कारणवश मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी का वारन्ट जारी कर दिया गया, मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी ने पंजीठ में पनाह ली। अंग्रेज फौज ने गाँव वालों को परेशान किया जिस पर मौलाना ने कहा इस से अच्छा हो कि मैं गिरफ़्फ़तार हो जाऊँ, इस पर गाँव के चैधरी अज़ीम साहब ने कहा कि अगर पूरा गाँव भी गिरफ़्फतार हो जाए और उनको फाँसी पर लटका दिया जाए तो ऐसे वक्त भी आपको फौज के हवाले नहीं किया जाएगा, ऐसे बलिदानी थे मौलाना के मित्रगण, यहाँ यह तथ्य उल्लेखनिय है कि इन महान स्वतनत्रता सैनानियों की पाठय पुस्तकों के इतिहास में उपेक्षा की जा रही है इन्हीं दिनों में मौलाना रहमतुल्लाह अपना नाम मुसलिहुददीन रख कर दिल्ली रवाना हुए और जयपुर व जौधपुर के खतरनाक जंगलों को पैदल तय करते हुए सूरत बन्दरगाह पहूँचे, सूरत से हज के लिए रवाना हुए एक लम्बे और कठिनाईयों से परिपूर्ण यात्रा करके अल्लाह पर विश्वास करते हुए मक्का मुअज्जमा महुँचे ताकि अल्लाह के घर शान्त वातावरण में इस्लाम को फैला सकें।

1857 में शिक्षा जगत के नायक मौलाना मौहम्मद कासिम थे जिन्होंने देवबन्द में स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए एक छावनी स्थापित की बाद में उसका नाम मदरसा देवबन्द रखा गया। जिसे दारूल उलूम देवबन्द के नाम से एतिहासिक प्रसिद्धी प्राप्त है। मौलाना मौहम्मद कासिम का दृष्टिकोण था ‘‘शिक्षा एक शक्ति है’’ मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी ने भी इसी दृष्टिकोण के अनुसार एक मदरसा स्थापित किया जिसका नाम मदरसा सौलतिया रखा गया। धार्मिक शिक्षा मक्का से चलकर हिन्दुस्तान आयी और हिन्दुस्तानी विद्वान मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी का यह चमत्कार है कि उन्होंने इस ज्ञान को पुनः मक्का पहुँचा दिया उनके समय के पश्चात ये शिक्षा केन्द ज्ञान की ज्योति तथा धर्म की सेवा निरन्तर कर रहा है। कैराना व आसपास के इलाके के हाजी जब मक्क़ा जाते हैं तो इस मदरसे को देख कर गर्व महसूस करते हैं।

वर्तमान काल के लोकप्रिय कवि कलीम अहमद ‘आजिज’ मदरसा सौलतिया का परिचय अपनी रचना ‘यहाँ से मदीना, मदीना से काबा’ में यूँ देते हैं ‘‘ये मदरसे का मदरसा है खानकाह की खानकाह है, दफ्तर का दफ्तर है, सराय की सराय है जो जिस कैफियत का इच्छुक हो वो मिलेगी। ये एक ऐसी संस्था है जो सदियो पहले हुआ करती थी यहाँ शिक्षा का अभिलाषी ज्ञानार्जन कर सकता है बुद्धि के इच्छुक को बुद्धि मिलेगी, जनूँ के दिवानों के जुनूँ प्राप्त होता है, मुहब्बत चाहिए तो जितनी चाहिए उससे ज्यादा मिले रोटी कपडा मकान चाहिए तो बकदरे जर्फ वो भी मौजूद है फतवा चाहिए तो फत्वा हाजिर, अमानत रखनी हो तो आजाओ छोड जाओ ये घर तुम्हारा घर है, अमानत वापिस लेनी चाहो तो वह पडी है उठालों, साहित्य चाहिये तो सुबहान अल्लाह वो भी हाज़िर, संक्षिप्त ये कि मानवता का डिपार्टमेन्टल स्टोर है’’।

मौलाना रहमतुल्ला की कई रचनाएं बाजार में उपलब्ध नही वर्तमान में फरीद बुक डिपो,नई दिल्ली ने उर्दू में ‘‘मुजाहिद-ए-इस्लाम मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी’’ पुस्तक छापकर इस कमी को दूर किया है। मौजूदा अध्यक्ष मौलाना हशीम साहब ने एक बार टेलीफोन वार्ता में बताया कि मौलाना से मुताल्लिक पुस्तकें आदि पोस्ट बाक्स न0 114, मदरसा सौलतिया, मक्का से मुफ़्त मंगायी जा सकती हैं। मदरसे की वेसाईट http://www.alsawlatiyah.com/ जो अभी अर्बी में है उसे जल्द ही उर्दू और इण्डोनेशियन में भी कर दिया जाएगा। उपलब्ध पुस्तकें ‘इजालतुश्शुकूक’’ में इसाईयों के 29 सवालों के जवाब हैं और उसमें मौहम्मद सल्लल्लाहू अलैहि वसल्ल्म के नबी होने पर और इन्जील ईसाइयों की धार्मिक पुस्तक में रददो बदल साबित की गयी है। पुस्तक ऐजाज-ए-ईसवी में मौलाना ने इन्जील का अविश्वसनीय होना सिद्ध किया है।

पुस्तक इजहारूल हक़ जो असल अरबी भाषा में है मौलाना की अन्तिम आयू की है जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। अंग्रेजी संस्करण लन्दन से छपा है जिसका विवरण कैराना वेबसाईट कैराना डोट नेट पर देख सकते हैं। इस पुस्तक की तैयारी में मौलाना ने अरबी,फारसी, उर्दू और दूसरी भाषाओं की पुस्तकों का अवलोकन करने के पश्चात जब ईसाईयत पर अन्तिम बार कलम उठायी तो वो गौरवशाली रचना बन गयी जिसने ईसाई संसार में तहलका मचा दिया, लन्दन टाईम्स ने पुस्तक इजहार उल हक पर टिप्पनी करते हुए लिखा है ‘अगर लोग इस पुस्तक को पढते रहे तो मजहबे ईसा की तरकी बन्द हो जायगी’ इस्लामी विद्वानों की ओर से जितनी पुस्तके इसाईयत की रोकथाम में लिखी गयी सब इजहार उल हक की रोशनी में लिखी गयीं।
मौलाना अशरफ अली थानवी बयानुल कुरआन में, मौलाना हिफजुर्रहमान ने किससुल कुरआन में, मौलाना मौहम्मद अली ने पेगाम-ए- मौहम्मदी में आपकी पुस्तकों की बहुत प्रशंसा की है।

कादनियत के मुकाबले में अल्लामा कश्मीरी मैदान में आये तो आपके अवलोकन में मौलाना रहमतुल्ल कैरानवी की रचनाऐं रहा करती और प्रार्थना किया करते ‘ अल्लाह मौलाना रहमतुल्ला को जजाऐ खेर अता फरमाऐ कि उनकी पुस्तकें इस्लामी विचारधारा की सुरक्षा में अद्वीतीय है खुदा न करे वक्त पडने पर हमारे धार्मिक विद्वानों को परेशान होने की आवश्यकता नहीं । मौलाना का देहान्त रमजानुल मुबारक में 1308 हिजरी, 1861 ई0 में हुआ। आपकी कबर मक्क़ा जन्नतुल मुअल्ला नामक कब्रिस्तान में है, पहलू में हाजी इमदादुल्लाह महाजिर मक्की भी दफन हैं।
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