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मस्जिद तोडऩे वाला मुसलमान हो गया

Written By इस्लामिक वेबदुनिया on बुधवार, 24 मार्च 2010 | बुधवार, मार्च 24, 2010

यह जुबानी है एक ऐसे नौजवान शख्स की जिसे इस्लाम और मुसलमान नाम से ही बेहद चिढ़ थी। मुसलमान और इस्लाम से नफरत करने वाला और एक मस्जिद को तोडऩे वाला यह शख्स आखिर खुद मुसलमान हो गया।

  मैं गुजरात के मेहसाना जिले के एक गांव के ठाकुर जमींदार का बेटा हूं। मेरा पुराना नाम युवराज है। युवराज नाम से ही लोग मुझो जानते हैं। हालांकि बाद में पण्डितों ने मेरी राशि की खातिर मेरा नाम महेश रखा, मगर मैं युवराज नाम से ही प्रसिद्ध हो गया। लेकिन अब मैं सुहैल सिद्दीकी हूं। मैं 13 अगस्त 1983 को पैदा हुआ। जसपाल ठाकुर कॉलेज से मैं बीकॉम कर रहा था कि मुझो पढ़ाई छोडऩी पड़ी। मेरा एक भाई और एक बहन है। मेरे जीजा जी बड़े नेता हैं। असल में वे भाजपा के हैं,स्थानीय राजनीति में वजन बढ़ाने के लिए उन्होंने इस साल कांग्रेस से चुनाव लड़ा और वे जीत गए।

  गुजरात के गोधरा कांड के बाद 2002 ई के दंगों में हम आठ दोस्तों का एक गु्रप था,जिसने इन दंगों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। हमारे इलाके में दरिंदगी का नंगा नाच हो रहा था। हमारे घर के पास गांव में एक छोटी सी मस्जिद थी। लोग कहते हैं यह ऐतिहासिक मस्जिद है। हम लोगों ने योजना बनाई कि गांव की इस मस्जिद को गिरा देना चाहिए। हम आठों साथी उस मस्जिद को गिराने के लिए गए। बहुत मेहनत के बाद भी हम उस मस्जिद को गिरा ना सके। ऐसा लगता था हमारे कुदाल लोहे के नहीं लकड़ी के हों। बहुत निराश होकर हमने मस्जिद के बाहर वाली दीवार गिरानी शुरू कर दी जो कुछ साल पहले ही गांव वालों ने बनवाई थी। दीवार गिराने के बाद हम दोस्तों ने सोचा कि इस मस्जिद को जला देना चाहिए। इसके लिए पेट्रोल लाया गया और पुराने कपड़े में पेट्रोल डालकर मस्जिद को जलाने के लिए एक साथी ने आग जलाई तो खुद उसके कपड़ों में आग लग गई। और देखते ही देखते वह खुद जलकर मर गया। मैं तो यह दृश्य देखकर डर गया। हमारी इस कोशिश से मस्जिद को कुछ नुकसान पहुंचा। हैरत की बात यह हुई कि इस घटना के बाद दो सप्ताह के अन्दर ही मेरे चार साथी एक के बाद एक मरते गए। उनके सिर में दर्द होता था और वे तड़प-तड़प क र मर जाते थे। मेरे अलावा बाकी दो साथी पागल हो गए। यह सब देख मैं तो बेहद डर गया। मैं डरा-छिपा फिरता था। रात को उसी टूटी मस्जिद में जाकर रोता था और कहता था-ए मुसलमानों के भगवान मुझो क्षमा कर दे। मैं अपना माथा वहां टेकता।

इस दौरान मुझे सपने में नरक और स्वर्ग दिखाई देने लगे। मैंने एक बार सपने में देखा कि मैं नरक में हूं और वहां का एक दरोगा मेरे उन साथियों को जो मस्जिद गिराने में मेरे साथ थे अपने जल्लादों से सजा दिलवा रहा है। सजा यह है कि लंबे- लंबे कांटों का एक जाल है। उस जाल पर डालकर उनको खींचा जा रहा है जिससे मांस और खाल गर्दन से पैरों तक उतर जाती है लेकिन शरीर फिर ठीक हो जाता है। इसके बाद उनको उल्टा लटका दिया और नीचे आग जला दी गई जो मुंह से बाहर ऊपर को निकल रही है और दो जल्लाद हंटर से उनको मार रहे हैं। वे रो रहे हैं,चीख रहे हैं कि 'हमें माफ कर दो।' दरोगा क्रोध में कहता है-'क्षमा का समय समाप्त हो गया है। मृत्यु के बाद कोई क्षमा और प्रायश्चित नहीं है।'

सपने में इस तरह के भयानक दृश्य मुझे बार-बार दिखाई देते और मैं डर के मारे पागल सा होने को होता तो मुझे स्वर्ग दिखाई पड़ता। मैं स्वर्ग में देखता कि तालाब से भी चौड़ी दूध की नहर है। दूध बह रहा है। एक नहर शहद की है। एक ठण्डे पानी की इतनी साफ कि उसमें मेरी तस्वीर साफ दिख रही है। मैंने एक बार सपने में देखा कि एक बहुत सुंदर पेड़ है,इतना बड़ा कि हजारों लोग उसके साए में आ जाए। मैं सपने में बहुत अच्छे बाग देखता और हमेशा मुझे अल्लाहु अकबर,अल्लाहु अकबर की तीन बार आवाज आती। यह सुनकर मुझे अच्छा ना लगता और जब कभी मैं साथ में अल्लाहु अकबर ना कहता तो मुझे  स्वर्ग से उठाकर बाहर फैंक दिया जाता। जब मेरी आंख खुलती तो मैं बिस्तर से नीचे पड़ा मिलता। एक बार सपने में मैंने स्वर्ग को देखा तो 'ला इलाहा इल्लल्लाह' कहा तो वहां के बहुत सारे लड़के-लड़कियां मेरी सेवा में लग गए।

  इस तरह बहुत दिन गुजर गए। गुजरात में दंगे होते रहे लेकिन अब मुझे दिल से लगता जैसे मैं मुसलमान हूं। अब मुझे मुसलमानों की हत्या की सूचना मिलती तो मेरा दिल बहुत दुखता। मैं एक दिन बीजापुर गया। वहां एक मस्जिद देखी। वहां के इमाम साहब सहारनपुर के थे। मैंने उनसे अपनी पूरी कहानी बताई। उन्होंने कहा-'अल्लाह को आपसे बहुत प्रेम है,अगर आपसे प्रेम ना होता तो अपने साथियों की तरह आप भी नरक में जल रहे होते। आप अल्लाह के इस उपकार को समझों।'

सपने देखने से पहले मैं इस्लाम के नाम से ही चिढ़ता था। ठाकुर कॉलेज में किसी मुसलमान का प्रवेश नहीं होने देता था। लेकिन जाने क्यों अब मुझे इस्लाम की हर बात अच्छी लगने लगी। बीजापुर से मैं घर आया और मैंने तय कर लिया कि अब मुझे मुसलमान होना चाहिए। मैं अहमदाबाद की जामा मस्जिद में गया और इस्लाम कबूल कर लिया। अहमदाबाद से नमाज सीखने की किताब लेकर आया और नमाज याद करने लगा और फिर नमाज पढऩा शुरू कर दिया।

यह आर्टिकल दिल्ली से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक 'कान्ति' ( 21 फरवरी से 27 फरवरी 2010)से लिया गया है।
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