मुद्राराक्षस जी की तार्रुफ़ की कोई आवश्यकता नहीं है. आज लखनऊ के इस महान शख्सियत को कौन नहीं जानता. संक्षिप्त में इनके बारे में जानने के लिए यहाँ चटका लगायें. आज पेश है उन्ही के द्वारा लिखा गया एक लेख जो वर्तमान में इस्लाम धर्म के बारे में फ़ैल चुकी गलतफहमियों के निवारण की ओर इशारा कर रहा है...
इस्लाम और ईसाइयत, इन दोनों ही धार्मिक आस्थाओं की दुनिया बहुत बड़ी है और भारत में इनका लंबा इतिहास है। ईसाइयत तो भारत में हजरत ईसा के मारे जाने के कुछ समय बाद कदम रख चुकी थी लेकिन यहां इस्लाम का इतिहास भी छोटा नही है। अपने यहां लंबे मुस्लिम शासन की खास बात हमें याद रखनी चाहिए कि इस दौर में मुस्लिम शासकों ने देश को इस्लामी साम्राज्य में बदलने की कोशिश कभी नही की। जिस औरंगजेब को कट्टरपंथी मुसलमान के रूप में अक्सर चिनित किया जाता है, उस बादशाह ने भी कई मंदिरों को अनुदान दिए थे जिसके ऐतिहासिक दस्तावेज आज भी मौजूद है। विख्यात संस्कृत काव्यशास्त्री पंडितराज जगन्नाथ इसी बादशाह के आश्रम में थे और उन्होंने मुसलमान शहजादी से शादी भी की थी। ध्यान रहे तत्कालीन वैयाकरण अप्पय दीक्षित ने पंडितराज को ‘यवनीसंसर्गदूषित’ कहा था, पर औरंगजेब ने अपनी बहन से विवाह करने वाले पंडितराज पर कभी इस्लाम कुबूल करने के लिए जोर नही डाला। यह बड़ी अजीब बात है कि भारत में इस्लाम के इतने लंबे दौर के बावजूद इस्लाम की वह मानवीय तस्वीर सामने नही लायी जा सकी जिसकी वजह से दुनिया में एक तिहाई से ज्यादा मुल्कों के अवाम ने इसे पसंद किया है। यह मामूली बात नही है कि जिस महापुरुष के जीवनकाल में ही सिर्फ मक्का मदीना ही नही, आसपास का बड़ा भू-भाग उसका स्वामित्व स्वीकार कर चुका हो, उसकी मृत्यु के समय घर में कुछ खाने को न हो और अंतिम संस्कार के लिए परिवार खाली हाथ ही नही, कर्जदार भी हो। जो शख्स जिन्दगी भर किसी गद्दे पर नही, खजूर की चटाई पर सोया हो, वह घोषणा करे कि वह आम आदमी ही माना जाए। उसकी कब्र पर आज भी कोई सिर नही झुकाता। जब शहर के बाहर खाई खुद रही होती है तो वह शख्स खुद भी फावड़ा-कुदाल चलाता है और मलबा ढोता है। उसके साथ खुदाई कर रहा एक व्यक्ति भूख से परेशान होकर कहता है कि उसने पेट पर पत्थर बांध रखा है तो हजरत मुहम्मद कहते है, उन्होंने दो पत्थर बांध रखे है। मगर इससे ज्यादा उलझन यह देखकर होती है कि सबसे ज्यादा गलतफहमियां कुरआन को लेकर बनी रही हैं. इस किताब की भी सही तस्वीर जाने क्यों गैर मुस्लिमों तक नही पहुंची है। एक किताब पंडित सुन्दर लाल ने जरूर लिखी थी जो निश्चय ही हिंदी में एक बेहतरीन किताब है लेकिन वह बहुत पहले लिखी गई थी और अब दुर्लभ है। याद रखना चाहिए कि हजरत मुहम्मद ऐसे समय में हुए थे जब इंसानों को गुलाम बनाना, खरीदना-बेचना आम बात हुआ करती थी। अपने समय की इस परंपरा को चुनौती देते हुए एक इसी नस्ल के गुलाम बिलाल को बराबरी का दर्जा ही नही दिया बल्कि उन्हें पहला मुअज्जन भी नियुक्त किया था। एक हदीस के अनुसार वे कहते थे कि जन्नत में बिलाल उनसे आगे होंगे। दरअसल एक गुलाम को उन्होंने बराबरी का जो दर्जा दिया, वह उनके इस सिद्धान्त का नतीजा था जिसके अनुसार उन्होंने आखिरी हज के वक्त अपने भाषण में कहा था- सभी इंसान आदम की संतान हैं और सब बराबर है। किसी अरबी को गैर-अरबी पर, गैर-अरबी को अरबी पर, काले को गोरे पर और गोरे पर काले को श्रेष्ठता प्राप्त नही है। जबकि हम सभी जानते है कि यूरोप की दुनिया में पहली बार टामस पेन ने अठारहवी सदी में सभी मनुष्यों की बराबरी का घोषणापत्र जारी किया था। इसकी बुनियादी स्थापना हजरत मुहम्मद ने टामस पेन से लगभग बारह सदी पहले ही घोषित कर दी थी। मानवता के इतिहास में यह एक बहुत बड़ी प्रगतिशील पहल थी खास तौर से उस वक्त जब नस्ली श्रेष्ठता के सवाल पर दुनिया भर में नफरत और हिंसा आम थी। जहां दुनिया में सुख-सम्पत्ति बटोरने और लूटने की जबर्दस्त आपाधापी होती रही है, हजरत मुहम्मद ने स्पष्टता से हजरत उस्मान से कहा था- आदम के बेटे को किसी चीज पर कोई हक नही है सिवा रहने के लिए घर, बदन ढकने को कपड़ा, सूखी रोटी और पानी। यही वजह है कि उन्होंने कभी कोई सुख-सुविधा की चीज अर्जित नही की। किसी भी समाज में सूदखोरी गरीब आदमी का खून चूसने का सबसे भयानक तरीका होता है। हजरत मुहम्मद का समाजी अर्थव्यवस्था में यह बेहद क्रांतिकारी कदम था कि उन्होंने सूदखोरी को नाजायज ठहराया। ब्याज छोड़ने और सिर्फ मूलधन वापस लेने की बात कुरआन में भी कही गयी है.
आज जिस इस्लाम को दुनियां में आतंक से जोड़ा जा रहा है उसके विचारों को व्यवस्थित रूप से पारिभाषित करने की ज़रुरत है.
-मुद्राराक्षस
(यह लेख दैनिक अख़बार राष्ट्रीय सहारा के लखनऊ एडिशन में दिनांक 25-जुलाई-2010 को छपा था)