मानव के अन्दर नैतिकता की भावना एक स्वाभाविक भावना है जो कुछ गुणों को पसन्द और कुछ दूसरे गुणों को नापसन्द करती है। यह भावना व्यक्तिगत रूप से लोगों में भले ही थोड़ी या अधिक हो किन्तु सामूहिक रूप से सदैव मानव-चेतना ने नैतिकता के कुछ मूल्यों को समान रूप से अच्छाई और कुछ को बुराई की संज्ञा दी है। सत्य, न्याय, वचन-पालन और अमानत को सदा ही मानवीय नैतिक सीमाओं में प्रशंसनीय माना गया है और कभी कोई ऐसा युग नहीं बीता जब झूठ, जु़ल्म, वचन-भंग और ख़ियानत को पसन्द किया गया हो। हमदर्दी, दयाभाव, दानशीलता और उदारता को सदैव सराहा गया तथा स्वार्थपरता, क्रूरता, कंजूसी और संकीर्णता को कभी आदर योग्य स्थान नहीं मिला। धैर्य, सहनशीलता, स्थैर्य, गंभीरता, दृढ़संकल्पता व बहादुरी वे गुण हैं जो सदा से प्रशंसनीय रहे हैं। इसके विपरीत धैर्यहीनता, क्षुद्रता, विचार की अस्थिरता, निरुत्साह और कायरता पर कभी भी श्रद्धा-सुमन नहीं बरसाए गए। आत्मसंयम, स्वाभिमान, शिष्टता और मिलनसारी की गणना सदैव उत्तम गुणों में ही होती रही और कभी ऐसा नहीं हुआ कि भोग-विलास, ओछापन और अशिष्टता ने नैतिक गुणों की सूची में कोई जगह पाई हो। कर्तव्यपरायणता, विश्वसनीयता, तत्परता एवं उत्तरदायित्व की भावना का सदा सम्मान किया गया तथा कर्तव्य विमुख, धोखाबाज़, कामचोर तथा ग़ैर ज़िम्मेदार लोगों को कभी अच्छी नज़र से नहीं देखा गया। इसी प्रकार सामूहिक जीवन के सदगुणों व दुर्गुणों के मामले में भी मानवता का फ़ैसला एक जैसा रहा है। प्रशंसा की दृष्टि से वही समाज देखा गया है जिसमें अनुशासन और व्यवस्था हो, आपसी सहयोग तथा सहकारिता हो, आपसी प्रेमभाव तथा हितचिन्तन हो, सामूहिक न्याय व सामाजिक समानता हो। आपसी फूट, बिखराव, अव्यवस्था, अनुशासनहीनता, मतभेद, परस्पर द्वेषभाव, अत्याचार और असमानता की गणना सामूहिक जीवन के प्रशंसनीय लक्ष्णों में कभी भी नहीं की गई। ऐसा ही मामला चरित्रा की अच्छाई और बुराई का भी है। चोरी, व्यभिचार, हत्या, डकैती, धोखाधड़ी और घूसख़ोरी कभी सत्कर्म नहीं माने गए। अभद्र भाषण, उत्पीड़न, पीठ पीछे बुराई, चुग़लख़ोरी, ईर्ष्या, दोषारोपण तथा उपद्रव फैलाने को कभी ‘पुण्य’ नहीं समझा गया। मक्कार, घमंडी, आडम्बरवादी, कपटाचारी, हठधर्म और लोभी व्यक्ति कभी भले लोगों में नहीं गिने गए।
इसके विपरीत माँ-बाप की सेवा, संबंधियों की सहायता, पड़ोसियों से अच्छा व्यवहार, मित्रों से हमदर्दी, निर्बलों की हिमायत, अनाथों और बेसहारों की देखरेख, रोगियों की सेवा तथा पीड़ितों की मदद सदैव नेकी समझी गई है। स्वच्छ चरित्र वाला मधुर-भाषी, विनम्र-भाव व्यक्ति और सब की भलाई चाहने वाले लोग सदा आदरणीय रहे। मानवता उन्हीं लोगों को अपना उत्तम अंश मानती रही है जो सच्चे और शुभ-चिन्तक हों, जिन पर हर मामले में भरोसा किया जा सके, जिनका बाहर और भीतर एक समान हो, जिनकी कथनी करनी में समानता हो, जो अपने हितों की प्राप्ति में संतोष करने वाले और दूसरों के अधिकारों और हितों को देने में उदार हृदय हों, शान्तिपूर्वक रहें और दूसरों को शान्ति प्रदान करें, जिनके व्यक्तित्व से प्रत्येक को ‘भलाई’ की आशा हो और किसी को बुराई की आशंका न हो।
इससे मालूम हुआ कि मानवीय नैतिकताएं वास्तव में ऐसी सर्वमान्य वास्तविकताएँ हैं जिन्हें सभी लोग जानते हैं और सदैव जानते चले आ रहे हैं। अच्छाई और बुराई कोई ढकी-छिपी चीज़ें नहीं हैं कि उन्हें कहीं से ढूँढ़कर निकालने की आवश्यकता हो। वे तो मानवता की चिरपरिचित चीज़ें हैं जिनकी चेतना मानव की प्रकृति में समाहित कर दी गई है। यही कारण है कि क़ुरआन अपनी भाषा में नेकी और भलाई को ‘मारूफ़’ (जानी-पहचानी हुई चीज़) और बुराई को ‘मुनकर’ (मानव की प्रकृति जिसका इन्कार करे) के शब्दों से अभिहित करता है।
अर्थात् भलाई और नेकी वह चीज़ है जिसे सभी लोग भला जानते हैं और ‘मुनकर’ वह है जिसे कोई अच्छाई और भलाई के रूप में नहीं जानता। इसी वास्तविकता का कु़रआन दूसरे शब्दों में इस प्रकार वर्णन करता है:
‘‘मानवीय आत्मा को ख़ुदा ने भलाई और बुराई का ज्ञान अंतः प्रेरणा के रूप में प्रदान कर दिया है।’’ (9:18)
अब प्रश्न यह है कि यदि नैतिकता की भलाई और बुराई जानी-पहचानी चीज़ें हैं और दुनिया सदैव कुछ गुणों के अच्छा और कुछ के बुरा होने पर एकमत रही है तो फिर दुनिया में ये भिन्न-भिन्न नैतिक व्यवस्थाएँ क्यों पाई जाती हैं? उनके बीच अन्तर क्यों है? वह कौन-सी चीज़ है जिसके कारण हम कहते हैं कि इस्लाम के पास अपनी एक स्थायी नैतिक व्यवस्था है? और ‘नैतिकता’ के संबंध में वास्तव में इस्लाम का विशिष्ट योगदान (Contribution) क्या है जिसे उसकी ख़ास विशेषता कहा जा सके?
इस विषय को समझने के लिए जब हम विश्व की विभिन्न नैतिक प्रणालियों पर नज़र डालते हैं तो पहली दृष्टि में ही जो अन्तर हमारे सामने आता है वह यह है कि विभिन्न नैतिक गुणों को जीवन की सम्पूर्ण व्यवस्था में लागू करने, उनकी सीमा, स्थान और उपयोग निश्चित करने तथा उनके उचित अनुपात के निर्धारित करने में ये सब प्रणालियाँ परस्पर भिन्न हैं। अधिक गहराई से देखने पर इस अन्तर का कारण यह प्रतीत होता है कि वास्तव में वह नैतिकता की अच्छाई व बुराई का स्तर निर्धारित करने तथा भलाई और बुराई के ज्ञान का स्रोत तय करने में भिन्न-भिन्न मत रखते हैं। उनके बीच इस मामले में भी मतभेद है कि आचारसंहिता की क्रियान्वयन शक्ति (Authority) कौन-सी है जिसके बल पर वह लागू की जा सके और वे कौन-से प्रेरक तत्व हैं जो मनुष्य को इस क़ानून के पालन पर तैयार कर सकें। जब हम इस मतभेद के कारणों की खोज लगाते हैं तो अंततः यह वास्तविकता हम पर खुलती है कि वह वास्तविक चीज़ जिसने इन सब नैतिक व्यवस्थाओं के रास्ते अलग-अलग कर दिए हैं वह यह है कि उनके बीच ब्रह्माण्ड की अवधारणा, विश्व में मनुष्य की हैसियत तथा मानव-जीवन के उद्देश्य के संबंध में मतभेद है। इसी मतभेद ने जड़ से लेकर शाखाओं तक उनकी आत्मा, उनवे$ स्वभाव और उनके स्वरूप को एक-दूसरे से बिल्कुल अलग कर दिया है। मानव-जीवन में मौलिक निर्णायक प्रश्न ये हैं कि इस विश्व को कोई स्वामी है या नहीं? है तो वह एक है या अनेक हैं? उसके गुण क्या हैं? हमारे साथ उसका संबंध क्या है? उसने हमारे मार्गदर्शन का कोई प्रबंध किया है या नहीं? हम उसके सामने उत्तरदायी हैं या नहीं? उत्तरदायी हैं तो किस बात के? और हमारे जीवन का लक्ष्य और परिणाम क्या है जिसे सामने रखकर हम कार्य करें? इन प्रश्नों का उत्तर जिस प्रकार का होगा उसी के अनुसार जीवन-व्यवस्था बनेगी और उसी के अनुरूप नैतिक नियमों का निर्माण होगा।
इस संक्षिप्त आलेख में यह बात कठिन है कि विश्व की विभिन्न जीवन-प्रणालियों का विश्लेषण करके यह बताया जाए कि उनमें किस-किस ने इन प्रश्नों का कौन-सा उत्तर अपनाया है और उस उत्तर ने उसके स्वरूप और मार्ग निर्धारण पर क्या प्रभाव डाला है? यहाँ केवल इस्लाम के संबंध में बतलाया जाएगा कि वह इन प्रश्नों का क्या उत्तर देता है और उसके आधार पर किस विशेष प्रकार की नैतिक व्यवस्था अस्तित्व में आती है।
इस्लाम का जवाब यह है कि इस सृष्टि का स्वामी ‘ईश्वर’ है और वह एक ही स्वामी है। उसी ने इस सृष्टि को पैदा किया। वही इसका एकमात्र प्रभु, शासक और पालनहार है। उसी के आदेशानुपालन के कारण यह सारी व्यवस्था चल रही है। वह तत्वदर्शी, सर्वशक्तिमान है, प्रत्यक्ष और परोक्ष का जानने वाला है। सभी दोषों, भूलों, निर्बलताओं तथा कमियों से मुक्त है। उसकी व्यवस्था में लाग लपेट या टेढ़ापन बिल्कुल नहीं है। मनुष्य उसका जन्मजात बन्दा (दास) है। उसका कार्य यही है कि वह अपने स्रष्टा की बन्दगी (गु़लामी) और आज्ञापालन करे। उसके जीवन का लक्ष्य ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और आज्ञापालन है जिसकी पद्धति निर्धारित करना मनुष्य का अपना काम नहीं बल्कि उस ईश्वर का काम है जिसका वह दास है। ईश्वर ने उसके मार्गदर्शन हेतु अपने दूत (पैग़म्बर) भेजे हैं और ग्रंथ उतारे हैं। मनुष्य का कर्तव्य है कि अपनी जीवन-व्यवस्था इसी ईश्वरीय मार्गदर्शन के स्रोत से प्राप्त करे। मनुष्य अपने सभी कार्यकलापों के लिए ईश्वर के सामने उत्तरदायी है और इस उत्तरदायित्व के संबंध में उसे इस लोक में नहीं बल्कि परलोक में हिसाब देना है। वर्तमान जीवन तो वास्तव में परीक्षा की अवधि है इसलिए यहां मनुष्य के सम्पूर्ण प्रयास इस लक्ष्य की ओर केन्द्रित होने चाहिएँ कि वह परलोक की जवाबदेही में अपने प्रभु के समक्ष सफल हो जाए। परलोक की इस परीक्षा में मनुष्य अपने पूरे अस्तित्व के साथ सम्मिलित है। उसकी सभी शक्तियों एवं योग्यताओं की परीक्षा है। पूरे विश्व की जो चीज़ें भी मनुष्य के सम्पर्क में आती हैं उसके बारे में निष्पक्ष जांच होती है कि मनुष्य ने उन चीज़ों के साथ कैसा मामला किया और यह जांच करने वाली वह सत्ता है जिसने धरती के कण-कण पर, हवा और पानी पर, विश्वात्मक तरंगों पर और ख़ुद इन्सान के दिल व दिमाग़ और हाथ-पैर पर, उसकी गतिविधियों का ही नहीं बल्कि उसके विचारों तथा इरादों तक का ठीक-ठीक रिकार्ड उपलब्ध कर रखा है।
यह है वह उत्तर जो इस्लाम ने जीवन के मूलभूत प्रश्नों का दिया है। सृष्टि और मनुष्य के संबंध में उक्त अवधारणा उस वास्तविक और परम कल्याण के लक्ष्य को निर्धारित कर देती है जिसे प्राप्त करने का भरपूर प्रयास मनुष्य को करना चाहिए, और वह है ईश्वर की प्रसन्नता। यही वह मानदंड है जिस पर इस्लाम की नैतिक व्यवस्था में किसी कार्य शैली को परखकर यह निर्णय किया जाता है कि वह ‘भला’ है या ‘बुरा’। इस के निर्धारण से नैतिकता को वह धुरी मिल जाती है जिसके चारों ओर सम्पूर्ण नैतिक जीवन घूमता है और उसकी स्थिति लंगर रहित जहाज़ की-सी नहीं रहती कि हवा के झोंके और समुद्र की लहरों के थपेड़े उसे इधर-उधर दौड़ाते फिरें। यह निर्धारण एक केन्द्रीय उद्देश्य सामने रखता है जिसके परिणामस्वरूप जीवन में सभी नैतिक गुणों की उचित सीमाएँ उचित स्थान और उपयुक्त व्यावहारिक रूप से निश्चित हो जाते हैं। हमें वह स्थायी नैतिक मूल्य मिल जाते हैं जो परिवर्तशील परिस्थिति में भी अपनी जगह अटल रह सकें। फिर सबसे बड़ी बात यह है कि ईश-प्रसन्नता का लक्ष्य प्राप्त कर लेने से नैतिकता को एक उच्चतम परिणाम मिल जाता है जिसके फलस्वरूप नैतिक उत्थान की संभावनाएँ असीम हो जाती हैं और किसी चरण में भी स्वार्थपरता का प्रदूषण उसे दूषित नहीं कर सकता।
मापदंड प्रदान करने के साथ इस्लाम अपने इसी विश्व तथा मानव अवधारणा पर आधारित नैतिक सौन्दर्य तथा असौन्दर्य के ज्ञान का एक स्थायी स्रोत भी हमें प्रदान करता है। उसने हमारे नैतिकता के ज्ञान को मात्रा हमारी बुद्धि या इच्छाओं या अनुभवों अथवा मानवीय ज्ञान के भरोसे नहीं छोड़ा है कि यदि ये चीजें अपने निर्णय बदल दें तो हमारे नैतिक सिद्धांत भी बदल जाएँ और उन्हें कोई स्थायित्व न मिल सके, बल्कि इस्लाम ने हमें दो निश्चित स्रोत (ईशग्रंथ और ईशदूत का आदर्श) प्रदान किए हैं जिससे हमें हर युग तथा प्रत्येक परिस्थिति में नैतिक निर्देश प्राप्त होते हैं। ये निर्देश ऐसे व्यापक हैं कि घरेलू जीवन के छोटे से छोटे मामलात से लेकर बड़ी-बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक समस्याओं तक जीवन के हर पक्ष और प्रत्येक विभाग में वे हमारा मार्गदर्शन करते हैं। उनके अन्दर जीवन संबंधी विषयों पर नैतिक सिद्धांतों का वह व्यापक निरूपण (Widest Application) पाया जाता है जो किसी स्तर पर किसी अन्य साधन की आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होने देता।
सृष्टि व मानव संबंधी इस्लाम की इसी अवधारणा में वह क्रियान्वयन शक्ति (Sanction) भी मौजूद है जिसका होना नैतिक क़ानून को लागू करने के लिए ज़रूरी है और वह है ईशभय, परलोक की पूछताछ का डर और शाश्वत भविष्य की असफलता का ख़तरा। यद्यपि इस्लाम एक ऐसी शक्ति और जनमत (Public Opinion) भी तैयार करना चाहता है जो सामाजिक जीवन में व्यक्तियों एवं समुदायों को नैतिक नियमों की पाबन्दी पर विवश करने वाली हो और एक ऐसी राजनैतिक व्यवस्था भी बनाना चाहता है जिसके द्वारा नैतिकता संबंधी आचार-संहिता बलपूर्वक लागू करे परन्तु इसमें बाह्य दबाव की अपेक्षा आन्तरिक प्रेरणा अधिक शक्तिशाली हो जो ईश्वर और परलोक के विचार पर आधारित हो। नैतिकता संबंधी निर्देश देने से पहले इस्लाम आदमी के दिल में यह बात बिठाता है कि तेरा मामला वास्तव में उस अल्लाह के साथ है जो हर समय हर जगह तुझे देख रहा है। तू दुनिया भर से छिप सकता है मगर उससे नहीं नहीं छिप सकता। दुनिया भर को धोखा दे सकता है मगर उसे धोखा नहीं दे सकता। दुनिया भर से भाग सकता है मगर उसकी पकड़ से बचकर कहीं नहीं जा सकता। दुनिया केवल तेरा बाहरी रूप देख सकती है मगर ईश्वर तेरी नीयत तथा तेरे इरादों तक को देख लेता है। दुनिया के थोड़े-से जीवन में तू जो चाहे कर ले मगर तुझे अंततः मरकर उसकी अदालत में उपस्थित होना है जहां वकालत, रिश्वत, सिफ़ारिश, झूठी गवाही, धोखा कुछ भी न चल सकेगा और तेरे भविष्य का निष्पक्ष फ़ैसला हो जाएगा। इस विश्वास के द्वारा इस्लाम मानो हर व्यक्ति के दिल में पुलिस की एक चौकी स्थापित कर देता है जो अन्दर से उसको अदेश पालन पर विवश करती है। चाहे बाहर उन आदेशों की पाबन्दी कराने वाली पुलिस, अदालत और जेल मौजूद हो या न हो। इस्लाम के नैतिक क़ानून के पीछे यही वास्तविक शक्ति है जो उसे लागू कराती है। जनमत और शासन का समर्थन भी इसे प्राप्त हो तो कहना ही क्या! वरना मात्रा यही ईमान और विश्वास मुसलमानों को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से सीधा चला सकता है। शर्त यही है कि सच्चा ईमान दिलों में बैठा हुआ हो।
संसार और इन्सान के संबंध में यह इस्लामी दृष्टिकोण वे प्रेरणाएँ भी प्रस्तुत करता है जो इन्सान को नैतिक नियमों पर चलने के लिए उभारती हैं। इन्सान का ईश्वर को अपना ईश्वर मान लेना और उसके प्रति समर्पण को अपना जीवन लक्ष्य बनाना और उसकी प्रसन्नता को अपना जीवन लक्ष्य ठहराना पर्याप्त प्रेरक है कि वह उन आदेशों का पालन करे जिनके विषय में उसे विश्वास हो कि वे ईश्वरीय आदेश हैं। इसके साथ परलोक पर विश्वास की यह धारणा एक दूसरा शक्तिशाली प्रेरक है कि जो व्यक्ति ईश्वरीय निर्देशों का पालन करेगा उसके लिए परलोक के शाश्वत जीवन में एक उज्जवल भविष्य निश्चित है, चाहे दुनिया के इस अस्थायी जीवन में उसे कितनी ही कठिनाइयों, कष्टों और हानियों को झेलना पड़े। इसके विपरीत जो यहां ईश्वर की अवज्ञा करेगा वह परलोक में स्थायी दंड भोगेगा, चाहे यहां के थोड़े दिनों के जीवन में वह कितने ही मज़े लूट ले। यह आशा और यह भय अगर किसी के दिल में घर कर जाए तो वह ऐसी परिस्थिति में भी बुराई से दूर रह सकता है जहां बुराई अत्यंत लुभावनी या लाभप्रद हो।
इस विवरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस्लाम के पास सृष्टि के संबंध में अपना एक दृष्टिकोण है, अच्छाई और बुराई के अपने पैमाने हैं। नैतिकता के ज्ञान के अपने स्रोत हैं, अपनी क्रियान्वयन शक्ति है और वह अपना प्रेरक बल अलग रखता है। उन्हीं की सहायता से इस्लाम परिचित मान्य नैतिक सिद्धांतों को अपने मूल्यों के अनुसार व्यवस्थित करके जीवन के सभी क्षेत्रों में लागू करता है। इसी आधार पर यह कहना बिल्कुल सही है कि इस्लाम अपनी एक पूर्ण एवं स्थायी नैतिक व्यवस्था रखता है। इस व्यवस्था की विशेषताएँ वैसे तो बहुत हैं मगर उनमें से तीन बहुत महत्वपूर्ण हैं जिन्हें उसका महत्वपूर्ण योगदान कहा जा सकता है।
पहली विशेषता यह है कि वह ईश-प्रसन्नता को लक्ष्य बनाकर नैतिकता के लिए एक ऐसा उच्च मानदंड प्रस्तुत करता है, जिसके कारण नैतिक उत्थान की कोई अंतिम सीमा नहीं रहती। ज्ञान के एक स्रोत का निर्धारण करके नैतिकता को ऐसा स्थायित्व प्रदान करता है कि जिसमें उन्नति की तो संभावना है मगर अनावश्यक परिवर्तन की नहीं। ईशभय के द्वारा नैतिक नियतों के लागू करने के लिए वह बल देता है जो बाहरी दबाव के बग़ैर भी इन्सान से उसकी पाबन्दी कराता है। ईश्वर और परलोक पर विश्वास वह प्रेरक शक्ति प्रदान करता है जो इन्सान को स्वयमेव नैतिक नियमों का अनुसरण करने की चाहत और स्वीकृति पैदा करता है।
दूसरी विशेषता यह है कि इस्लाम अनावश्यक उर्वरता से काम लेकर कुछ निराली नैतिकता को प्रस्तुत नहीं करता और न मानव के प्रमुख नैतिक सिद्धांतों में से कुछ को घटाने-बढ़ाने का प्रयास करता है। वह उन्हीं नैतिक उसूलों को लेता है जो जाने-पहचाने हैं और उनमें से कुछ को नहीं बल्कि सबको लेता है। फिर जीवन में पूर्ण संतुलन के साथ प्रत्येक की स्थिति, स्थान और उपयोग तय करता है और उन्हें इतने व्यापक रूप से लागू करता है कि व्यक्तिगत आचरण, पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन, राजनीति, कारोबार, बाज़ार, शिक्षण संस्था, न्यायालय, पुलिस लाइन, छावनी, रणक्षेत्रा, समझौता कांफ्रेंस अर्थात् जीवन का कोई भाग नैतिकता के व्यापक प्रभाव-क्षेत्र से बच नहीं पाता। हर जगह और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वह नैतिकता को शासक बनाता है और उसका प्रयास यह है कि जीवन के मामलों की लगाम इच्छाओं, स्वार्थों और परिस्थितियों के बजाय नैतिकता के हाथ में हो।
तीसरी विशेषता यह है कि वह (इस्लाम) इन्सानियत से एक ऐसी जीवन-व्यवस्था की मांग करता है जो अच्छाई पर आधारित हो और बुराई से पाक हो। उसका आह्नान यही है कि जिन भलाइयों को मानवता के स्वभाव ने सदा भला जाना है आओ उन्हें स्थापित करें और फैलाएँ तथा जिन बुराइयों को मानवता सदा बुरा समझती रही है, आओ, उन्हें दबाएँ और मिटाएँ। इस आह्नान को जिन्होंने स्वीकार किया उन्हें इकट्ठा करके इस्लाम ने एक उम्मत (समुदाय) बनाई जिसका नाम मुस्लिम था, जिसका एकमात्र उद्देश्य यही था कि वह ‘भलाई’ को जारी करे और ‘बुराई’ को दबाने और मिटाने के लिए संगठित प्रयास करे।
स्रोत साभार: इस्लामधर्म.ऑर्ग