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जिस्म में मौजूद बेकार लगने वाली चीज़ें क्या वाकई में बेकार हैं?

Written By zeashan haider zaidi on सोमवार, 25 अक्तूबर 2010 | सोमवार, अक्तूबर 25, 2010

इस दुनिया में दो तरह की थ्योरीज़ पायी जाती हैं। एक है विकासवाद (Evolution), जिसके अनुसार यूनिवर्स और उसमें जो कुछ भी मौजूद है वह सब कुछ अपने आप बना, विकास की दौड़ में ताकतवर जातियां कमजोरों को खत्म करती रहती हैं और बाद में वही अपनी नस्ल को आगे बढ़ाती हैं। जबकि दूसरी थ्योरी इण्टेलिजेंट डिजाईन (Intelligent Design) कहती है कि ऐसा नहीं है। यूनिवर्स में सब कुछ सुव्यवस्थित है और एक उसूल के अनुसार बना हुआ है जो यह साबित करता है कि इस कायनात को बनाने वाला कोई क्रियेटर मौजूद है। जो लोग विकासवाद की बात करते हैं वह भी यह मानते हैं कि उसूलों के अनुसार ही विकास होता है हालांकि उनका यह भी मानना है कि यह उसूल भी अपने आप ही बन गये हैं।

विकासवादी अपने पक्ष में जो सबसे बड़ी दलील देते हैं यह यह कि विकास की दौड़ में बहुत सी चीज़ें बच जाती हैं जो हमारे लिये बेकार होती हैं। जैसे कि इनसान में मौजूद कान की लवें जो जानवरों में तो लम्बी होती हैं और उनके काम आती हैं, लेकिन इनसान अपने विकास में उनका इस्तेमाल छोड़ चुका है इसलिये वे उसके लिये बेकार होकर छोटी हो गयी हैं। इसी तरंह बड़ी आँत का किनारा जिसको अपेण्डिक्स कहा जाता है वह भी जानवरों में कार्यशील होता है लेकिन इंसानों में बेकार हो चुका है। विकासवाद के समर्थक ये कहते हैं कि अगर सब कुछ बनाने वाले कोई क्रियेटर है तो ये बेकार चीज़ें इंसान के जिस्म में नहीं होनी चाहिए थीं।

लेकिन अगर विकासवाद की दलीलें सही मान ली जायें तो न्यूटन का बताया हुआ सबसे बड़ा नियम जो कि साइंटिफिक चिंतन का आधार है, फेल हो जायेगा। और वह नियम है, ‘किसी प्राकृतिक घटना के पीछे एक और केवल एक पूर्ण सत्य कारण होता है।’ यानि हर चीज़ के पीछे एक वजह होती है। और अगर जिस्म के कुछ हिस्से बगैर किसी वजह के मौजूद हैं तो न्यूटन का यह नियम लागू नहीं हो पायेगा। 

अगर हम इस्लाम की रौशनी में नज़र करें तो मालूम ये होता है की दुनिया की बेकार से बेकार लगने वाली चीज़ भी वास्तव में बेकार नहीं है.    

शेख सुद्दूक (अ.र.) की लिखी ग्यारह सौ साल पुरानी किताब एललुश-शराये में दर्ज हदीस के मुताबिक इमाम जाफर सादिक अलैहिस्सलाम ने आँखों में नमकीनी, कानों में तल्खी, नाक में तरी और मुंह में शीरनी की वजह बताते हुए फरमाया कि अल्लाह तआला ने बनी आदम की दोनों आँखों को दो चरबी के टुकड़ों से बनाया और उनमें नमकीनियत रख दी। अगर ऐसा न होता तो वह पिघल कर बह जातीं। और अगर उनमें कोई धूल का ज़र्रा पड़ जाता तो बहुत तकलीफ देता। आँखों में कोई ज़र्रा या तिनका पड़ जाता है तो नमकीनी उसको निकाल कर फेंक देती है। और कानों में जो तल्खी रखी है वह दिमाग के लिये एक परदा है। कान में अगर कोई कीड़ा मकोड़ा पड़ जाये तो वह फौरन उसमें से निकल भागने की कोशिश करता है। अगर ये तल्खी न हो तो वह दिमाग तक पहुंच जाये। और नाक में तरी को भी दिमाग की हिफाज़त के लिये रखा। अगर इसमें तरी न हो तो दिमाग गर्मी से पिघल कर बह जाये। और साथ ही ये तरी दिमाग से हर फासिद माददे को बाहर कर देती है। और मुंह में शीरनी रखी ये बनी आदम पर अल्लाह का एहसान है ताकि वह खाने पीने की लज्ज़त हासिल कर सके।

इस तरह हम देखते हैं कि कानों में मौजूद माद्दा जो आम आदमी की नज़र में गंदगी से ज्यादा कुछ नहीं दरअसल बहुत ही अहम है और कानों की हिफाज़त करता है। इसी तरह नाक की गंदगी भी हकीकत में निहायत अहम है। आँखों के आँसुओं की अहमियत तो जग जाहिर है ही। मतलब ये हुआ कि जिस्म का कोई भी हिस्सा यहां तक कि जिस्म से निकलने वाली गंदगी जो लोगों की नज़र में बेकार सी शय है और वो यही समझते हैं कि यह किसी मशीन से निकलने वाले वेस्ट मैटीरियल की तरह है, हकीकत में ऐसा नहीं है बल्कि ये वेस्ट मालूम होने वाला मैटीरियल भी जिस्म के लिये उतना ही ज़रूरी है जितना कि आँखें, और हाथ पैर वगैरा। 

ये विकासवादियों की दलीलों को नकार कर उन्हें गलत साबित करती हैं और साबित करती हैं कि दुनिया में सब कुछ बहुत ही क़रीने से डिज़ाईन किया गया है। यहां तक कि कल तक बेकार समझे जाने वाले बड़ी आँत के किनारे अपेण्डिक्स के बारे में भी आज की साइंस ने खोज की है कि ये बेकार नहीं हैं। बल्कि यहाँ पर ऐसे बैक्टीरिया पनपते हैं जो हाजमे के सिस्टम को दुरुस्त करते हैं। ये बैक्टीरिया वैसे तो आँतों में हर जगह पाये जाते हैं लेकिन जब डायरिया जैसी बीमारियों में इनकी कमी हो जाती है तो यहाँ से ये फिर पनप जाते हैं। इस तरह बेकार कुछ भी नहीं है। ये सृष्टि की इंटेलिजेंट डिजाईन है जिसका क्रियेटर है अल्लाह। अगर हम विकासवाद की बात करें तो वह सिर्फ अल्लाह का विकास है जो पूरी तरह सिस्टमैटिक है। और इसी का नाम है ‘खिलक़त’।
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