बकरीद का मौसम है। और ब्लाग जगत में धुवांधार बहस छिड़ी हुई है। हर आदमी मुसलमानों को राक्षस बताने पर तुला हुआ है क्योंकि वे जानवरों को बेदर्दी से हलाल कर डालते हैं। इसमें वो लोग भी आगे आगे हैं जिनकी हर शाम किसी बढ़िया रेस्टोरेंट में रोस्टेड या लज़ीज़ कोरमे का मज़ा लेते हुए बीतती है।
कुछ लोगों को माँस खाने में कोई एतराज़ नहीं। उन्हें एतराज़ है जानवरों के काटने के तरीके पर। उनका कहना यह है कि अगर जानवर को हलाल करने की बजाय झटके से उसकी गर्दन अलग कर दी जाये तो उसे कोई दर्द नहीं होगा और वे जानवर का माँस खाने के बाद भी जीव पीड़ा के दोषी नहीं होंगे।
लेकिन मौजूदा साइंटिफिक रिसर्च कुछ और कहती है। यह रिसर्च हैनोवर यूनिवर्सिटी, जर्मनी में 1974-1978 के बीच हुई, और रिसर्च करने वाले थे प्रोफेसर विल्हेम शुल्ज़ और उनके सहयोगी डा0 हाज़िम। इस रिसर्च में जानवरों के जिस्म पर इलेक्ट्रोड्स लगाकर उनकी इलेक्ट्रोइन्सेफ्लोग्राम (EEG) और इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम (ECG) लिया गया। फिर इन जानवरों के दो ग्रुप बनाकर एक ग्रुप को हलाल तरीके यानि धारदार औज़ार के ज़रिये स्पाइनल कार्ड छोड़कर बाकी ध्मानियां और शिराएं व नसें तेज़ी से काटी गयीं जबकि दूसरे ग्रुप के जानवरों में झटके से पूरी गर्दन अलग कर दी गयी। और फिर EEG और ECG रीडिंग के द्वारा दर्द को और कई दूसरी चीज़ों को मापा गया। उसके बाद जो नतीजे आये वह चौंकाने वाले थे।
हलाल तरीके में यानि इस्लामी तरीके में जानवर को तीन सेकंड तक छुरी चलाने का कोई दर्द महसूस नहीं हुआ और तीन सेकंड बाद जानवर खून बह जाने के कारण गहरे अवचेतन में पहुंच गया था और EEG शून्य रीडिंग दे रही थी। यानि उसके मस्तिष्क में दर्द तो क्या कोई एहसास नहीं था। लेकिन स्पाइनल कॉर्ड के रिफ्लेक्स रियेक्शन के कारण दिल चालू था और वह जिस्म के खून को बाहर की तरफ उछाल रहा था। इसी घटना को देखकर सामने वाले को लगता है कि जानवर दर्द से तड़प रहा है। जबकि वास्तविकता है कि उसके मस्तिष्क में दर्द का कोई एहसास नहीं होता। हाँ खून के निकलने से माँस में हानिकारक जीवाणु पनपने की संभावना समाप्त हो जाती है।
जिन जानवरों की झटके से गर्दन अलग की गयी थी उनमें यह पाया गया कि EEG की ऊंची रीडिंग अत्यधिक दर्द को दर्शा रही थी। ऐसे जानवरों में ब्रेन डेथ बाद में हुई जबकि दिल का चलना फौरन रुक गया। दिल के रुकने से खून जिस्म से बाहर नहीं निकलने पाया और इस कारण ऐसे जानवरों के माँस में जीवाणु ज्यादा पनपे। हलाल तरीके से काटे गये जानवर का गोश्त ज्यादा दिन तक चला जबकि झटके वाले जानवर का गोश्त जल्दी खराब हो गया।
तो इस तरह सिद्व हुआ कि जानवरों के काटने का इस्लामी तरीका ज्यादा मानवीय है। क्योंकि इससे बिना जानवर को पीड़ा पहुंचाये उसका स्वस्थ माँस हम हासिल कर सकते हैं।
अब एक सामाजिक पहलू चूंकि हलाल तरीके में काटने वाले हाथ इंसान के होते हैं जबकि झटके के तरीके से जानवर मशीनों के द्वारा भी काटा जा सकता है, अत: झटके में पशुवध् कहीं तेजी से होता है, और उसकी नस्ल खत्म होने का खतरा पैदा हो जाता है।
अब कुछ हदीसें
रसूल अल्लाह (स-) ने फरमाया, ‘‘अल्लाह हमपर दयालू है और हमें भी दूसरों पर दयालू देखना चाहता है। अत: अगर अपने इस्तेमाल के लिये अगर जानवर को काटो तो छुरी को अच्छी तरह तेज़ कर लो ताकि उसे दर्द न हो।’’
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फरमाया कि ‘‘अपने पेट को जानवरों का कब्रिस्तान न बनाओ।’’ यानि हद से ज्यादा गोश्तखोरी भी न करो। हमें चीज़ें उतनी ही इस्तेमाल करनी चाहिए जितने की ज़रूरत है। इस्लाम हर चीज़ में बैंलेंस बनाने की बात करता है। न तो किसी बात में हद से ज्यादा ज्यादती होनी चाहिए, न ही हद से ज्यादा कमी।
सन्दर्भ : इमाम रज़ा नेटवर्क