जिस्म का सरक्यूलेटरी सिस्टम खून के ज़रिये पोषक तत्व और इलेक्ट्रोलाइट्स (सोडियम, पोटेशियम, क्लोरीन वगैरा), गैसों वगैरा को जिस्म के हिस्सों यानि सेल्स तक पहुंचाता है। जिससे कि जिस्म का टेम्प्रेचर मेन्टेन रहे, और जिस्म की एसीडिटी पर कण्ट्रोल रहे। दिल सरक्यूलेटरी सिस्टम का सबसे अहम हिस्सा है। दिल से जुड़ी छोटी नलकियां यानि धमनियां और शिराएं पूरे जिस्म में फैली रहती हैं और खून के ज़रिये ताज़ी हवा व न्यूट्रिशन को जिस्म में फैलाती हैं और जिस्म में बनने वाली गंदी हवा यानि कार्बन डाईआक्साइड व खराब मैटीरियल को जिस्म से बाहर निकालने के लिये उन्हें फेफड़ों व गुर्दों तक पहुंचाती हैं।
जब इंसान साँस लेता है तो उसके फेफड़ों में ताज़ी हवा यानि कि आक्सीजन दाखिल होती है। सरक्यूलेटरी सिस्टम का पम्प यानि कि दिल इस आक्सीजन को लेने के लिये खून को फेफड़ों में भेजता है। फेफड़ों में पहुंचने के बाद खून से गन्दी हवा यानि कार्बन डाईआक्साइड अलग हो जाती है और ताजी हवा यानि आक्सीज़न शामिल हो जाती है। ये काम खून में मौजूद हीमोग्लोबिन केमिकल रियेक्शन के ज़रिये करता है। कार्बन डाईआक्साइड साँस छोड़ते वक्त जिस्म से बाहर निकल जाती है।
आक्सीजन जिस्म के सेल्स में पहुंचकर जिस्म के काम करने के लिये एनर्जी तैयार करती है। सेल का एक महत्वपूर्ण भाग होता है जिसे माइटोकाण्ड्रिया कहते हैं। माइटोकाण्ड्रिया कोशिका यानि सेल का पावर प्लांट होता है। क्योंकि ये ए.टी.पी. नाम की केमिकल एनर्जी तैयार करता है। यह कोशिका के दूसरे भागों से ग्लूकोज और एन.ए.डी.एच. (NADH ) जैसे पदार्थों को लेकर आक्सीजन की उपस्थिति में ए.टी.पी. का निर्माण करता है। एनर्जी के प्रोडक्शन में निकलने वाली कार्बन डाईआक्साइड जिस्म के टेम्प्रेचर को बढ़ाती है जबकि आने वाली आक्सीजन टेम्प्रेचर को घटाती है। इस तरह सरक्यूलेटरी सिस्टम से होने वाला दोनों गैसों का सरक्यूलेशन जिस्म के टेम्प्रेचर को भी रेगुलेट करता है जो कि बदन के सारे सिस्टम्स के सुचारू तरीके से काम करने के लिये बहुत ज़रूरी है।
बात की जाये अगर सरक्यूलेटरी सिस्टम को पहचानने की, तो इस बारे में यूरोपियन किताबों के अनुसार इंग्लिश चिकित्सक विलियम हार्वे का नाम आता है जिसने 1628 में कुछ तजुर्बात के द्वारा इस सिस्टम की पूरी कार्यप्रणाली लोगों को समझाई। लेकिन ऐसा हरगिज नहीं है कि विलियम हार्वे से पहले इस सिस्टम में बारे में कोई कुछ नहीं जानता था।
इस्लाम के गोल्डेन पीरियड में कई इस्लामी साइंसदान इस सिस्टम को बखूबी समझ चुके थे। अवीसिन्ना (इब्ने सिना) ‘दिल के धड़कने के राज़ से परदा हज़ारवीं सदी में ही उठा चुका था। तेरहवीं सदी में मौजूद अरबी साइंसदाँ इब्ने अल नफीस ने बताया कि गंदा खून दिल के ज़रिये फेफड़ों में जाता है और फिर वहाँ से साफ होकर वापस आता है और फिर दिल ही के ज़रिये पूरे जिस्म में पहुंचता है।
अब सवाल ये उठता है कि अवीसिन्ना या अल नफीस को यह बातें इस्लाम से या इस्लामी इमामों के ज़रिये हासिल हुआ या फिर गैर मुल्कों यानि हिन्दुस्तान वगैरा से? तो नीचे लिखे वाकिये से यह साफ हो जाता है कि हमारे इमामों को इलाही इल्म से सरक्यूलेटरी सिस्टम के बारे में भी इल्म था।
यह वाक़िया मैं इससे पहले बयान कर चुका हूं जो कि दर्ज है शेख सुद्दूक (अ.र.) की लिखी ग्यारह सौ साल पुरानी किताब एललुश-शराये में। जब हज़रत इमाम जाफर सादिक अलैहिस्सलाम ने एक हिन्दुस्तानी चिकित्सक को चिकित्सा की कुछ गूढ़ बातें बतायी थीं। इन्ही में इमाम का एक जुमला इस तरह था, ‘‘----और दिल सुनोबर के फल की तरह इसलिए है कि वह सरंगूं रहे और उस का सर पतला रहे, इसलिए कि वह फेफड़ों में दाखिल होकर उससे ठंडक हासिल करे। ताकि उसकी गरमी से दिमाग भुन न जाये।’’
यहाँ पर इमाम दिल की खास बनावट की बात कर रहे हैं और सरक्यूलेटरी सिस्टम का राज़ निहायत आसान अलफाज़ में खोल रहे हैं।
आक्सीजन की सबसे ज्यादा ज़रूरत इंसानी दिमाग को होती है। इंसानी दिमाग वज़न के एतबार से पूरे जिस्म का सिर्फ दो प्रतिशत होता है, जबकि यह जिस्म के खून का 15 प्रतिशत, आक्सीजन का 20 प्रतिशत और ग्लूकोज़ का 25 प्रतिशत इस्तेमाल करता है। दिमाग अपने काम करने के दौरान एनर्जी का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करता है, जिसके नतीजे में वह गर्मी पैदा करता है, उस वक्त वहाँ के टेम्प्रेचर को मेन्टेन करने के लिये आक्सीज़न अहम रोल निभाती है। और आक्सीजन न हो तो पल भर में गर्मी की ज्यादती से दिमाग के न्यूरान्स खत्म होना शुरू हो जायेंगे। और इंसान की या तो मौत हो जायेगी या फिर वह पागल हो जायेगा। इसी की तरफ इशारा कर रहा है इमाम जाफर सादिक अलैहिस्सलाम का यह जुमला, ‘-------कि वह फेफड़ों में दाखिल होकर उससे ठंडक हासिल करे। ताकि उसकी गरमी से दिमाग भुन न जाये।’
इमाम साफ साफ फरमा रहे हैं कि ठंडक यानि कि आक्सीज़न दिल के ज़रिये दिमाग तक जाती है और वहाँ के टेम्प्रेचर को मेन्टेन रखती है।
इमाम जाफर सादिक अलैहिस्सलाम साइंस की मुश्किल बातों को आम आदमी की ज़बान में इस तरह समझाते थे कि जो साइंस से दूर होता था वह भी आसानी से समझ जाता था। उस ज़माने में आक्सीज़न, कार्बन डाई आक्साइड या किसी भी गैस की खोज नहीं हुई थी। इसलिए सरक्यूलेटरी सिस्टम को समझाना निहायत मुश्किल था किसी ऐसे शख्स को जिसने आक्सीजन या कार्बन डाई आक्साइड का नाम ही न सुना हो। इसलिए इमाम ने गैस का नाम लेने की बजाय उसकी खासियतों को बताकर दिल का पूरा सिस्टम समझा दिया और आज की साइंस भी हरगिज उनकी बातों में कोई कमी नहीं निकाल सकती।