अवश्यम्भावी रक्तपात
सत्य और न्याय को अपेक्षित क़त्ल यद्यपि देखने में सत्य के अनपेक्षित क़त्ल की तरह रक्तपात ही है, किन्तु वास्तव में यह अवश्यम्भावी रक्तपात है जिससे किसी दशा में छुटकारा नहीं। इसके बिना न संसार में शान्ति स्थापित हो सकती है, न बुराई और फ़साद की जड़ कट सकती है, न नेक लोगों को बुरों की दुष्टता से मुक्ति मिल सकती है, न हक़दार को हक़ मिल सकता है, न ईमानदारों को ईमान और अन्तरात्मा की स्वतंत्राता प्राप्त हो सकती है, न उद्दंडों को उनकी वैध सीमाओं में सीमित रखा जा सकता है और न ईश्वर के प्राणियों को भौतिक एवं आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त हो सकती है। यदि इस्लाम पर ऐसे रक्तपात का आरोप है तो उसे इस आरोप को स्वीकार करने में तनिक भी लज्जा नहीं। किन्तु (यदि ऐसे रक्तपात को निन्दनीय मान भी लिया जाए तो) प्रश्न यह है कि फिर और कौन है जिसका दामन इस अवश्यम्भावी रक्तपात के छींटों से रंजित नहीं है?
सत्य और न्याय को अपेक्षित क़त्ल यद्यपि देखने में सत्य के अनपेक्षित क़त्ल की तरह रक्तपात ही है, किन्तु वास्तव में यह अवश्यम्भावी रक्तपात है जिससे किसी दशा में छुटकारा नहीं। इसके बिना न संसार में शान्ति स्थापित हो सकती है, न बुराई और फ़साद की जड़ कट सकती है, न नेक लोगों को बुरों की दुष्टता से मुक्ति मिल सकती है, न हक़दार को हक़ मिल सकता है, न ईमानदारों को ईमान और अन्तरात्मा की स्वतंत्राता प्राप्त हो सकती है, न उद्दंडों को उनकी वैध सीमाओं में सीमित रखा जा सकता है और न ईश्वर के प्राणियों को भौतिक एवं आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त हो सकती है। यदि इस्लाम पर ऐसे रक्तपात का आरोप है तो उसे इस आरोप को स्वीकार करने में तनिक भी लज्जा नहीं। किन्तु (यदि ऐसे रक्तपात को निन्दनीय मान भी लिया जाए तो) प्रश्न यह है कि फिर और कौन है जिसका दामन इस अवश्यम्भावी रक्तपात के छींटों से रंजित नहीं है?
बौद्धमत की अहिंसा इसको वैध ठहराती है, किन्तु वह भी भिक्षु और गृहस्थ में अन्तर करने पर विवश हुई और अंततः उसने एक छोटे गिरोह के लिए मुक्ति (निर्वाण) को आरक्षित रखने के पश्चात् शेष सम्पूर्ण संसार को कुछ नैतिक आदेश देकर गृहस्थधर्म स्वीकार करने के लिए छोड़ दिया, जिसमें राजनीति, दंड-विधान और युद्ध सब कुछ है।
इसी प्रकार ईसाइयत भी युद्ध को सर्वथा अवैध ठहराने के बावजूद अन्ततः युद्ध के लिए विवश हुई और जब रोम साम्राज्य के अत्याचारों को सहन करना उसके लिए असंभव हो गया तो अन्ततः उसने स्वयं राज्य पर क़ब्ज़ा करके ऐसा युद्ध छेड़ा जो अवश्यम्भावी रक्तपात की सीमा से बहुत आगे निकल गया।
हिन्दू धर्म में भी अर्वाचीन दार्शनिकों ने ‘अहिंसा परमो धर्मः’ की धारणा प्रस्तावित की और जीव-हत्या को पाप ठहराया। किन्तु जब इस संबंध में क़ानूनविद् मनु से धर्मादेश (फ़तवा) मालूम किया गया कि ‘‘यदि कोई व्यक्ति हमारी स्त्रियों पर हाथ डाले या हमारा धन छीने, हमारे धर्म का अपमान करे तो हम क्या करें?’’ तो उसने उत्तर दिया कि ‘‘ऐसे अत्याचारी व्यक्ति को अवश्य मार डालना चाहिए, भले ही वह गुरु हो या विद्वान ब्राह्मण, बूढ़ा हो या नवयुवक।’’
गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं व बहुश्रुतम्।
आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।।
(मनु 8/350)
अर्थात
‘‘गुरु, बालक, वृद्ध या बहुत शास्त्रों का जानने वाला ब्राह्मण भी आततायी होकर आए तो उसे बेखटके मार डाले।’’यहाँ धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करके इस अवश्यम्भावी रक्तपात की आवश्यकता सिद्ध करने का अवसर नहीं है। धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन एक अलग चीज़ है जिसे यथावसर प्रस्तुत किया जाएगा और उस समय यह सिद्ध हो जाएगा कि जो धर्म युद्ध को बुरा समझते हैं, वे भी व्यावहारिक जगत् में पदार्पण के पश्चात् इस अवश्यम्भावी चीज़ से अपने आपको अलग रखने में असमर्थ रहे हैं। इस समय हमारा उद्देश्य केवल यह दिखाना है कि नैतिक प्रदर्शन के लिए कोई गिरोह चाहे कैसे ही ऊँचे काल्पनिक दर्शनों तक पहुँच जाए, किन्तु व्यावहारिक जगत में आकर उसे संसार की तमाम समस्याओं को व्यवहारतः हल करना पड़ता है और यह संसार स्वयं उसको विवश कर देता है कि वह उसके यथार्थ का व्यावहारिक उपायों से मुक़ाबला करे। कु़रआन अवतरित करने वाले (ईश्वर) के लिए यह कुछ कठिन कार्य न था कि वह प्राण-सम्मान के लिए उसी प्रकार के काल्पनिक, आनन्ददायक नियम प्रस्तुत करता, जैसे कि अहिंसा की धारणा में पाए जाते हैं और निश्चय ही वह अपनी चामत्कारिक वाणी में उनको प्रस्तुत करके संसार को आश्चर्यचकित कर सकता था। किन्तु उस जगत्-स्रष्टा को भाषण और दार्शनिकता का प्रदर्शन अभीष्ट न था, बल्कि वह अपने बन्दों के लिए एक सत्यानुवू$ल और स्पष्ट व्यवहार-संहिता प्रस्तुत करना चाहता था, जिसका पालन करके उनका लोक और धर्म दोनों सँवर सके। इसलिए जब उसने देखा कि ‘‘यह और बात है कि सत्य और न्याय को (क़त्ल) अपेक्षित हो’’ के अपवाद के बिना, मात्रा ‘जीव-हत्या न करो’ का सामान्य आदेश लाभदायक नहीं हो सकता तो यह उसकी अवगुणरहित सत्ता के प्रतिवू$ल था कि दुनिया वालों को ‘‘तुम वह बात क्यों कहते हो जो करते नहीं हो’’ (क़ुरआन, 61:3), का ताना देने के बावजूद वह उन्हें यह सिखाता कि ज़बान से ‘अहिंसा परमो धर्मः’ की आवाज़ बुलन्द करो और हाथ से ख़ूब तलवार चलाते रहो। अतः यह ईश्वर की पूर्ण तत्वदर्शिता ही थी कि उसने प्राण-सम्मान की शिक्षा के साथ प्राण-दंड का क़ानून भी निर्धारित किया और इस तरह उस शक्ति को प्रयुक्त करने को आवश्यक ठहराया जिसका प्रयोग प्राण-प्रतिष्ठा की सुरक्षा के लिए अवश्यम्भावी है।
सामूहिक उपद्रव
यह प्राण-दंड का क़ानून जिस प्रकार व्यक्तियों के लिए है उसी प्रकार समूहों के लिए भी है। जिस प्रकार व्यक्ति उद्दंड होते हैं, उसी प्रकार गिरोह और क़ौमें भी उद्दंड होती हैं। जिस प्रकार व्यक्ति लालच और लोलुपता से अभिभूत होकर सीमोल्लंघन कर जाते हैं, उसी प्रकार गिरोह और क़ौमों में भी यह नैतिक रोग पैदा हो जाया करता है। अतः जिस प्रकार व्यक्तियों को क़ाबू में रखने और उन्हंे अत्याचार से रोकने के लिए युद्ध अवश्यम्भावी हो जाता है उसी प्रकार गिरोहों और क़ौमों के बढ़ते हुए दुष्कर्मों को रोकने के लिए भी युद्ध अवश्यम्भावी हो जाता है। आकार-प्रकार की दृष्टि से व्यक्तिगत और सामूहिक उपद्रव में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु प्रकृति की दृष्टि से बहुत बड़ा अन्तर है। व्यक्तियों के उपद्रव का क्षेत्रा अत्यंत सीमित होता है, मनुष्यों के एक छोटे समूह को उससे कष्ट पहुँचता है और गज़ भर धरती रक्त-रंजित करके उसका उन्मूलन किया जा सकता है। किन्तु गिरोहों का उपद्रव एक असीम संकट होता है जिससे अनगिनत मनुष्यों की ज़िन्दगी दूभर हो जाती है, पूरी-पूरी क़ौमों का जीवन संकीर्ण होकर रह जाता है। सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था में एक हलचल पैदा हो जाता है और उसका उन्मूलन ख़ून की नदियाँ बहाए बिना नहीं हो सकता, जिसे कुरआन में ‘धरती में रक्तपात’ (कु़रआन, 8:67) के अर्थयुक्त शब्द से अभिव्यंजित किया गया है।
यह प्राण-दंड का क़ानून जिस प्रकार व्यक्तियों के लिए है उसी प्रकार समूहों के लिए भी है। जिस प्रकार व्यक्ति उद्दंड होते हैं, उसी प्रकार गिरोह और क़ौमें भी उद्दंड होती हैं। जिस प्रकार व्यक्ति लालच और लोलुपता से अभिभूत होकर सीमोल्लंघन कर जाते हैं, उसी प्रकार गिरोह और क़ौमों में भी यह नैतिक रोग पैदा हो जाया करता है। अतः जिस प्रकार व्यक्तियों को क़ाबू में रखने और उन्हंे अत्याचार से रोकने के लिए युद्ध अवश्यम्भावी हो जाता है उसी प्रकार गिरोहों और क़ौमों के बढ़ते हुए दुष्कर्मों को रोकने के लिए भी युद्ध अवश्यम्भावी हो जाता है। आकार-प्रकार की दृष्टि से व्यक्तिगत और सामूहिक उपद्रव में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु प्रकृति की दृष्टि से बहुत बड़ा अन्तर है। व्यक्तियों के उपद्रव का क्षेत्रा अत्यंत सीमित होता है, मनुष्यों के एक छोटे समूह को उससे कष्ट पहुँचता है और गज़ भर धरती रक्त-रंजित करके उसका उन्मूलन किया जा सकता है। किन्तु गिरोहों का उपद्रव एक असीम संकट होता है जिससे अनगिनत मनुष्यों की ज़िन्दगी दूभर हो जाती है, पूरी-पूरी क़ौमों का जीवन संकीर्ण होकर रह जाता है। सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था में एक हलचल पैदा हो जाता है और उसका उन्मूलन ख़ून की नदियाँ बहाए बिना नहीं हो सकता, जिसे कुरआन में ‘धरती में रक्तपात’ (कु़रआन, 8:67) के अर्थयुक्त शब्द से अभिव्यंजित किया गया है।
गिरोह जब उद्दंडता पर उतर आते हैं तो वे कोई एक उपद्रव नहीं मचाते, बल्कि उनमें तरह-तरह के शैतान सम्मिलित होते हैं इसलिए तरह-तरह की शैतानी ताक़तें उनके तूफ़ान में उभर आती हैं और हज़ारों प्रकार के उपद्रव उनके कारण उठ खड़े होते हैं। कुछ उनमें धन-दौलत के लालची होते हैं तो वे ग़रीब क़ौमों पर डाके डालते हैं, उनके व्यापार पर क़ब्ज़ा करते हैं, उनके उद्योगों को नष्ट करते हैं, उनके परिश्रम से कमाए हुए धन को विभिन्न प्रकार की चालाकियों से लूटते हैं और ताक़त के बल पर उस धन से अपने कोष भरते हैं जिसके वैध अधिकारी वे भूखी, पीड़ित क़ौमें होती हैं। कुछ उनमें अपनी तुच्छ इच्छाओं के दास होते हैं। वे अपने जैसे मानवों को ख़ुदा बना बैठते हैं, अपनी इच्छाओं पर निर्बलों के अधिकारों की बलि चढ़ाते हैं। न्याय को मिटाकर अन्याय और अत्याचार के झंडे बुलन्द करते हैं। सज्जनों और नेक लोगों को दबाकर मूर्खों और कमीनों को ऊँचा उठाते हैं, उनके अपवित्र प्रभाव से क़ौमों के नैतिक गुण नष्ट हो जाते हैं, सद्गुणों और श्रेष्ठताओं के स्रोत सूख जाते हैं और उनकी जगह विश्वासघात, दुष्कर्म, अश्लीलता, कठोर हृदयता, अन्याय और अनगिनत अन्य नैतिक दुर्गुणों के गन्दे नाले जारी हो जाते हैं। फिर उनमें कुछ वे होते हैं जिन पर देश एवं विश्व-विजय का भूत सवार होता है वे निरुपाय और निर्बल क़ौमों की आज़ादियाँ छीन लेते हैं। ख़ुदा के बेगुनाह बन्दों के ख़ून बहाते हैं, अपनी सत्तालोलुपता को पूरा करने के लिए धरती में फ़साद फैलाते हैं और स्वतंत्र मानवों को उस गु़लामी का तौक़ पहनाते हैं जो समस्त नैतिक बिगाड़ की जड़ है। इन शैतानी कामों के साथ जब धर्म में ज़ोर-ज़बरदस्ती भी शामिल हो जाती है और इन अत्याचारी गिरोहों में से कोई गिरोह अपने स्वार्थों के लिए धर्म को प्रयोग करके ख़ुदा के बन्दों को धार्मिक स्वतंत्रता से भी वंचित कर देता है और दूसरों पर इसलिए अत्याचार करता है कि वे उसके धर्म के बजाय अपने धर्म का पालन क्यों करते हैं, तो यह संकट और भी गंभीर हो जाता है।
युद्ध : एक नैतिक कर्तव्य
ऐसी स्थिति में युद्ध वैध ही नहीं, बल्कि अनिवार्य हो जाता है। उस समय मानवता की सबसे बड़ी सेवा यही होती है कि उन ज़ालिमों को मौत के घाट उतार दिया जाए और उन फ़सादियों और उपद्रवियों की बुराई से ईश्वर के पीड़ित एवं निरुपाय बन्दों को छुटकारा दिलाया जाए जो शैतान बनकर आदम की संतान पर नैतिक, आध्यात्मिक और भौतिक विनाश का संकट लाते हैं। वे लोग वास्तव में मनुष्य नहीं होते कि मानवीय सहानुभूति के हक़दार हों, बल्कि मनुष्य के भेष में शैतान और मानवता के वास्तविक शत्रु होते हैं, जिनके साथ वास्तविक सहानुभूति यही है कि उनकी बुराई को विश्व-पटल से अशुद्ध अक्षर की तरह मिटा दिया जाए। वे अपनी करतूतों से अपने जीवन-अधिकार को स्वयं खो देते हैं। उन्हें और उन लोगों को, जो उनकी बुराई को बाक़ी रखने के लिए उनकी सहायता करें, संसार में जीवित रहने का अधिकार शेष नहीं रहता। वे वास्तव में मानव-शरीर का ऐसा अंग होते हैं जिसमें विषाक्त और विकृत तत्व भर गया हो, जिसके बाक़ी रहने से सम्पूर्ण शरीर के विनष्ट हो जाने की आशंका हो। इसलिए बुद्धि और निहित हितदर्शिता की अपेक्षा यही है कि उस विकृत और घातक अंग को काट पें$का जाए। बहुत संभव है कि संसार में कोई कल्पना-लोक में विचरने वाला शिक्षक (या शिक्षार्थी) ऐसा भी हो जिसकी दृष्टि में ऐसे ज़ालिमों का क़त्ल भी पाप हो और उसकी कायर आत्मा उस रक्त के प्लावन की कल्पना से काँप उठती हो जो उनकी बुराई के उन्मूलन में बहती है। किन्तु ऐसा शिक्षक संसार का सुधार नहीं कर सकता। वह जंगलों और पहाड़ों में जाकर आत्मसंयम और तपस्या से अपनी आत्मा को तो अवश्य शान्ति पहुँचा सकता है, किन्तु उसकी शिक्षा दुनिया को बुराई से पाक करने और अत्याचार और उद्दंडता से सुरक्षित रखने में कभी सफल नहीं हो सकती। वह आत्म-दमन करने वाले मनुष्यों का एक ऐसा गिरोह तो अवश्य जुटा सकता है जो उत्पीड़ितों के साथ अत्याचार सहने में स्वयं भी सम्मिलित हो जाए, किन्तु उच्च साहस वाले मनुष्यों का ऐसा गिरोह पैदा करना उसके वश की बात नहीं है जो जु़ल्म को मिटाकर न्याय स्थापित कर दे और ईश्वर के पैदा किए हुए प्राणियों के लिए शान्तिपूर्वक रहने और मानवता के उच्चतम लक्ष्य प्राप्त करने के साधन जुटा दे।
ऐसी स्थिति में युद्ध वैध ही नहीं, बल्कि अनिवार्य हो जाता है। उस समय मानवता की सबसे बड़ी सेवा यही होती है कि उन ज़ालिमों को मौत के घाट उतार दिया जाए और उन फ़सादियों और उपद्रवियों की बुराई से ईश्वर के पीड़ित एवं निरुपाय बन्दों को छुटकारा दिलाया जाए जो शैतान बनकर आदम की संतान पर नैतिक, आध्यात्मिक और भौतिक विनाश का संकट लाते हैं। वे लोग वास्तव में मनुष्य नहीं होते कि मानवीय सहानुभूति के हक़दार हों, बल्कि मनुष्य के भेष में शैतान और मानवता के वास्तविक शत्रु होते हैं, जिनके साथ वास्तविक सहानुभूति यही है कि उनकी बुराई को विश्व-पटल से अशुद्ध अक्षर की तरह मिटा दिया जाए। वे अपनी करतूतों से अपने जीवन-अधिकार को स्वयं खो देते हैं। उन्हें और उन लोगों को, जो उनकी बुराई को बाक़ी रखने के लिए उनकी सहायता करें, संसार में जीवित रहने का अधिकार शेष नहीं रहता। वे वास्तव में मानव-शरीर का ऐसा अंग होते हैं जिसमें विषाक्त और विकृत तत्व भर गया हो, जिसके बाक़ी रहने से सम्पूर्ण शरीर के विनष्ट हो जाने की आशंका हो। इसलिए बुद्धि और निहित हितदर्शिता की अपेक्षा यही है कि उस विकृत और घातक अंग को काट पें$का जाए। बहुत संभव है कि संसार में कोई कल्पना-लोक में विचरने वाला शिक्षक (या शिक्षार्थी) ऐसा भी हो जिसकी दृष्टि में ऐसे ज़ालिमों का क़त्ल भी पाप हो और उसकी कायर आत्मा उस रक्त के प्लावन की कल्पना से काँप उठती हो जो उनकी बुराई के उन्मूलन में बहती है। किन्तु ऐसा शिक्षक संसार का सुधार नहीं कर सकता। वह जंगलों और पहाड़ों में जाकर आत्मसंयम और तपस्या से अपनी आत्मा को तो अवश्य शान्ति पहुँचा सकता है, किन्तु उसकी शिक्षा दुनिया को बुराई से पाक करने और अत्याचार और उद्दंडता से सुरक्षित रखने में कभी सफल नहीं हो सकती। वह आत्म-दमन करने वाले मनुष्यों का एक ऐसा गिरोह तो अवश्य जुटा सकता है जो उत्पीड़ितों के साथ अत्याचार सहने में स्वयं भी सम्मिलित हो जाए, किन्तु उच्च साहस वाले मनुष्यों का ऐसा गिरोह पैदा करना उसके वश की बात नहीं है जो जु़ल्म को मिटाकर न्याय स्थापित कर दे और ईश्वर के पैदा किए हुए प्राणियों के लिए शान्तिपूर्वक रहने और मानवता के उच्चतम लक्ष्य प्राप्त करने के साधन जुटा दे।
व्यावहारिक नैतिकता, जिसका उद्देश्य सामाजिकता की समुचित व्यवस्था स्थापित करना है, वास्तव में एक दूसरा ही दर्शन है जिसमें काल्पनिक आनन्द की सामग्री ढूंढ़ना व्यर्थ है। जिस प्रकार चिकित्साशास्त्र का उद्देश्य कामवासना और भोज्य पदार्थ का सुख-स्वाद नहीं, बल्कि शरीर का सुधार है, चाहे कड़वी दवा से हो या मीठी से, उसी प्रकार नैतिकता का उद्देश्य भी अभिरुचि एवं दृष्टि का आनन्द नहीं है, बल्कि संसार का सुधार है, चाहे कड़ाई से हो या नर्मी से। कोई सच्चा नैतिक सुधारक तलवार और क़लम में से केवल एक ही चीज़ को अपनाने और एक ही साधन से सुधार का कर्तव्य निभाने की क़सम नहीं खा सकता, उसको अपना पूरा काम करने के लिए दोनों चीज़ों की समान रूप से आवश्यकता है। जब तक उपदेश और प्रचार उन्मादी गिरोहों को नैतिकता एवं मानवता की मर्यादाओं का पाबन्द बनाने में सफल हो सकता हो, उनके विरुद्ध तलवार उठाना अवैध बल्कि हराम है, मगर जब किसी गिरोह की शरारत और दुष्प्रकृति इस हद तक बढ़ गई हो कि उसे उपदेश और शिक्षा द्वारा रास्ते पर न लाया जा सके और जब उसको दूसरों पर हाथ डालने, दूसरों के अधिकार छीनने, दूसरों की इज़्ज़त और बड़ाई पर हमला करने से और दूसरों के नैतिक एवं आध्यात्मिक और भौतिक जीवन को नष्ट करने से रोकने के लिए युद्ध के सिवा कोई उपाय शेष न रहे तो फिर यह मानव के प्रत्येक हितैषी का प्रथम कर्तव्य हो जाता है कि उसके विरुद्ध तलवार उठाए और उस समय तक चैन न ले जब तक ईश-सृष्ट प्राणियों को उनके खोए अधिकार वापस न मिल जाएँ।
युद्ध की निहित उद्देश्य
युद्ध के इसी निहित उद्देश्य और आवश्यकता को तत्वदर्शी और सर्वज्ञ ईश्वर ने अपनी ज्ञान-गर्भित वाणी में इस प्रकार व्यक्त किया है:
युद्ध की निहित उद्देश्य
युद्ध के इसी निहित उद्देश्य और आवश्यकता को तत्वदर्शी और सर्वज्ञ ईश्वर ने अपनी ज्ञान-गर्भित वाणी में इस प्रकार व्यक्त किया है:
‘‘यदि ईश्वर लोगों को एक-दूसरे के द्वारा हटाता न रहता तो मठ और गिरजा और यहूदी उपासनागृह और मस्जिदें, जिनमें ईश्वर का अधिक नाम लिया जाता है, सब ढा दी जातीं।’’ (क़ुरआन, 22:40)
क़ुरआन की इस शुभ आयत में केवल मुसलमानों की मस्जिदों का ही उल्लेख नहीं किया गया, बल्कि ‘सवामेअ़’ ‘बिअ़’ और ‘सलवात’ तीन और चीज़ों का भी उल्लेख किया गया है। ‘सवामेअ़’ से अभिप्रेत ईसाइयों के संन्यासी गृह, मजूसियों के पूजागृह और साबियों के उपासना-ग्रह हैं। ‘बिअ़’ के शब्द में ईसाइयों के गिरजे और यहूदियों के कलीसे दोनों सम्मिलित हैं। यह सारगर्भित शब्द प्रयोग करने के पश्चात् फिर ‘सलवात’ का एक ऐसा शब्द प्रयोग किया है जो व्यापकता किए हुए हैं, जो ईश्वरीय आराधना के प्रत्येक विषय का द्योतक है। और इन सबके अंत में मस्जिदों का उल्लेख किया गया है। इससे अभिप्रेत यह बताना है कि अगर ईश्वर न्यायप्रिय मनुष्यों के द्वारा अत्याचारी लोगों को न हटाया करता तो इतना बड़ा बिगाड़ पैदा होता कि उपासना-गृह तक बर्बादी से न बचते जिनसे नुक़सान की किसी को आशंका नहीं हो सकती। इसके साथ ही यह भी बता दिया कि बिगाड़ का सबसे घृणित रूप यह है कि एक जाति शत्रुता से प्रेरित होकर दूसरी जाति के उपासना-ग्रहों तक को नष्ट कर दे। और फिर अत्यंत प्रभावकारी ढंग से अपने इस अभिप्राय को भी व्यक्त कर दिया कि जब कोई गिरोह ऐसा बिगाड़ पैदा करता है तो हम किसी दूसरे गिरोह के द्वारा उसकी दुष्टता का उन्मूलन कर देना आवश्यक समझते हैं।
युद्ध के इसी निहित उद्देश्य को दूसरे स्थान पर जालूत की सरकशी और हज़रत दाऊद (अलैहि॰) के हाथ से उसके मारे जाने का उल्लेख करते हुए इस प्रकार कहा है:
‘‘यदि ईश्वर मनुष्यों के एक गिरोह को दूसरे गिरोह के द्वारा हटाता न रहता तो धरती बिगाड़ से भर जाती, किन्तु ईश्वर संसार वालों के लिए उदार अनुग्राही है (कि वह बिगाड़ को दूर करने का यह प्रबंध करता रहता है)।’’ (क़ुरआन, 2:251)
एक और जगह क़ौमों की पारस्परिक शत्रुता और वैर का उल्लेख करके कहा जाता है:
‘‘वे जब भी युद्ध की आग भड़काते हैं, ईश्वर उसको बुझा देता है। वे धरती में बिगाड़ फैलाने के लिए प्रयास कर रहे हैं, हालाँकि ईश्वर बिगाड़ फैलाने वालों को पसन्द नहीं करता।’’ (क़ुरआन, 5:64)
ईश्वरीय मार्ग में युद्ध की आवश्यकता
यहाँ इसी बिगाड़ और अशान्ति, लालच और लोलुपता, द्वेष और शत्रुता और पक्षपात और संकीर्ण दृष्टता का युद्ध है जिसकी आग को बुझाने के लिए ईश्वर ने अपने नेक बन्दों को तलवार उठाने (अर्थात् शक्ति प्रयोग) का आदेश दिया है। अतएव कहा गया:
‘‘जिन लोगों से युद्ध किया जा रहा है उन्हें लड़ने की अनुमति दी जाती है, क्योंकि उन पर जु़ल्म हुआ है। और निश्चय ही ईश्वर उनकी सहायता की पूरी सामथ्र्य रखता है। ये वे लोग हैं जो अपने घरों से बेकु़सूर निकाले गए, इनका कु़सूर केवल यह था कि ये ईश्वर को अपना पालनहार कहते थे।’’ (क़ुरआन, 22:39-40)
यह क़ुरआन में पहली आयत है जो युद्ध के संबंध में उतरी। इसमें जिन लोगों के विरुद्ध लड़ने का आदेश दिया गया है, उनका दोष यह नहीं बताया कि उनके पास एक उपजाऊ भूमि है या वे व्यापार की एक बड़ी मंडी के मालिक हैं या वे एक अन्य धर्म का पालन करते हैं, बल्कि उनका अपराध स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि वे अत्याचार करते हैं, निर्दोष लोगों को उनके घरों से निकालते हैं और पक्षपात में इतने अधिक ग्रस्त हैं कि लोगों को केवल इसलिए दुख देते हैं और उन्हें संकट में डालते हैं कि वे लोग ईश्वर को अपना पालनहार कहते हैं। ऐसे लोगों के विरुद्ध केवल अपनी ही सुरक्षा हेतु युद्ध का आदेश नहीं दिया गया, बल्कि दूसरे उत्पीड़ित लोगों की सहायता और उनके समर्थन का भी आदेश दिया गया है और ताकीद की गई है कि कमज़ोर और निस्सहाय लोगों को ज़ालिमों के पंजे से छुड़ाओ:
‘‘तुम्हें क्या हो गया है कि ईश्वर के मार्ग में उन कमज़ोर पुरुषों, औरतों और बच्चों के लिए युद्ध नहीं करते, जो प्रार्थनाएँ करते हैं कि हमारे प्रभु! तू हमें उस बस्ती से निकाल जहाँ के लोग बड़े ज़ालिम और दमनकारी हैं, और हमारे लिए अपनी ओर से तू कोई सहायक और समर्थक नियुक्त कर।’’ (क़ुरआन, 4:75)
ऐसे युद्ध को, जो ज़ालिमों और फ़सादियों के मुक़ाबले में अपनी सुरक्षा और कमज़ोरों, असहायों और उत्पीड़ितों की सहायता के लिए किया जाए, ईश्वर ने उसे ठीक ‘ईश्वरीय मार्ग का युद्ध’ ठहराया है, जिससे यह बताना अभीष्ट है कि यह युद्ध बन्दों के लिए नहीं, बल्कि ख़ुदा के लिए है और बन्दों के स्वार्थ और उद्देश्यों के लिए नहीं, बल्कि ईश्वरीय प्रसन्नता के लिए है। इस युद्ध को उस समय तक जारी रखने का आदेश दिया गया है जब तक ईश्वर के निर्दोष बन्दों पर ज़ालिमों का अपनी तुच्छ इच्छाओं की पूर्ति के लिए हाथ डालने और दमन और अत्याचार का सिलसिला बन्द न हो जाए। अतएव कहा गया, ‘‘उनसे लड़े जाओ यहाँ तक कि उपद्रव शेष न रहे।’’ (क़ुरआन, 2:193);
और ‘‘यहाँ तक कि युद्ध अपने हथियार डाल दे और बिगाड़ का नामो-निशान इस तरह मिट जाए कि उसके मुक़ाबले के लिए युद्ध की आवश्यकता न रहे।’’ (क़ुरआन, 47:4); इसके साथ यह भी बता दिया है कि सत्य पर आधारित इस युद्ध को रक्तपात समझकर छोड़ देने या उसमें प्राण और धन की हानि देखकर संकोच करने का परिणाम कितना बुरा है।
और ‘‘यहाँ तक कि युद्ध अपने हथियार डाल दे और बिगाड़ का नामो-निशान इस तरह मिट जाए कि उसके मुक़ाबले के लिए युद्ध की आवश्यकता न रहे।’’ (क़ुरआन, 47:4); इसके साथ यह भी बता दिया है कि सत्य पर आधारित इस युद्ध को रक्तपात समझकर छोड़ देने या उसमें प्राण और धन की हानि देखकर संकोच करने का परिणाम कितना बुरा है।