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इस्लामी जिहाद की वास्तविकता The Real Jihad- Part 4

Written By Saleem Khan on मंगलवार, 19 अप्रैल 2011 | मंगलवार, अप्रैल 19, 2011

सत्य-असत्य का सीमा-निर्धारणफिर ईश्वर ने सत्य-समर्थन के युद्ध के निहित उद्देश्य और आवश्यकता को व्यक्त करने और ताकीद करने ही पर बस नहीं किया, बल्कि यह स्पष्टीकरण भी कर दिया कि:
‘‘जो लोग ईमान वाले हैं वे ईश्वर के मार्ग में युद्ध करते हैं और जो इन्कार करने वाले और अवज्ञाकारी हैं वे अत्याचार और उद्दंडता के लिए लड़ते हैं। अतः तुम शैतान के मित्रों से लड़ो। क्योंकि शैतान की लड़ाई का पहलू कमज़ोर है।’’ (क़ुरआन, 4:76)
यह एक निर्णायक कथन है जिसमें सत्य और असत्य के मध्य पूर्ण रूप से सीमा-निर्धारण कर दिया गया है। जो लोग जु़ल्म और सरकशी के लिए युद्ध करें वे शैतान के मित्रा हैं और जो जु़ल्म के लिए नहीं, बल्कि जुल्म को मिटाने के लिए युद्ध करें वे ईश्वरीय मार्ग के धर्मयोद्धा (मुजाहिद) हैं। प्रत्येक वह युद्ध जिनका उद्देश्य सत्य एवं न्याय के विरुद्ध ईश्वर के बन्दों को तकलीफ़ देना हो, जिसका उद्देश्य हक़दारों का हक़ छीनना और उन्हें उनकी वैध सम्पत्तियों से निष्कासित करना हो, जिसका उद्देश्य ईश्वर का नाम लेने वालों को अकारण सताना हो, वह युद्ध शैतान के मार्ग में है। उसका ईश्वर से कोई संबंध नहीं। ऐसा युद्ध करना ईमान वालों का काम नहीं है। हाँ, जो लोग ऐसे ज़ालिमों के मुक़ाबले में उत्पीड़ितों का समर्थन और उनकी रक्षा करते हैं, जो संसार से अन्याय एवं अत्याचार को मिटाकर न्याय स्थापित करना चाहते हैं, जो सरकशों और फ़सादियों की जड़ काटकर ख़ुदा के बन्दों को निश्चिन्तता और शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत करने और मानवता के उच्चतम लक्ष्य की ओर अग्रसर होने का अवसर देते हैं, उनका युद्ध ईश्वरीय मार्ग का युद्ध है। वे उत्पीड़ितों की जो सहायता करते हैं तो मानो वे स्वयं ईश्वर की सहायता करते हैं, और ईश्वर ने उन्हीं की सहायता का वचन दिया है।

ईश्वर के मार्ग में जिहाद की विशिष्टतायही वह ईश्वरीय मार्ग का जिहाद है जिसकी विशिष्टता के वर्णन से क़ुरआन के पृष्ठ भरे पड़े हैं, जिसके विषय में कहा है:
‘‘ऐ ईमान वालो क्या मैं तुम्हें ऐसी तिजारत बताऊँ जो तुम्हें पीड़ाजनक यातना से बचाए। वह तिजारत यह है कि तुम ईश्वर और उसके रसूल पर ईमान लाओ और उसकी राह में अपनी जान-माल से जिहाद करो। यह तुम्हारे लिए उत्तम कार्य है यदि तुम जानो।’’ (क़ुरआन, 61:10-11)
जिसमें लड़ने वालों की प्रशंसा इस तरह की है:
‘‘ईश्वर उन लोगों से प्रेम करता है जो उसके मार्ग में इस तरह पंक्तिबद्ध होकर लड़ते हैं मानो वे एक सीसा पिलाई हुई दीवार हैं।’’ (क़ुरआन, 61:4)
जिसकी उच्चता एवं महानता की गवाही इस शान से दी है:
‘‘क्या तुमने हाजियों को पानी पिलाने और प्रतिष्ठित मस्जिद (काबा) के आबाद करने को उन लोगों के काम के बराबर ठहराया है जो ईश्वर और अन्तिम दिन पर ईमान लाए और ईश्वर के मार्ग में लड़े? ईश्वर की दृष्टि में ये दोनों बराबर नहीं हैं। ईश्वर ज़ालिम लोगों का मार्गदर्शन नहीं करता। जो लोग ईमान लाए, जिन्होंने सत्य के लिए घरबार छोड़े और ईश्वरीय मार्ग में जान-माल से लड़े उनका दर्जा ईश्वर की दृष्टि में ज़्यादा बड़ा है, और वही लोग हैं जो वास्तव में सफल हैं।’’ (क़ुरआन, 9:19-20)
फिर यही वह सत्यप्रियता का युद्ध है जिसमें एक रात का जागना हज़ार रातें जागकर उपासना करने से बढ़कर है, जिसके क्षेत्रा में जमकर खड़े होने, घर बैठकर साठ वर्ष तक नमाज़ें पढ़ते रहने से उत्तम बताया गया है, जिसमें जागने वाली आंख पर नरक की आग हराम कर दी गई है, जिसके मार्ग में धूल-धूसरित होने वाले क़दमों से वादा किया गया है कि वे कभी नरकाग्नि की ओर न घसीटे जाएँगे ओर इसके साथ ही उन लोगों को जो उससे बचकर घर बैठ जाएँ और उसकी पुकार सुनकर कसमसाने लगें, इस प्रकोपयुक्त शैली में सचेत किया गया है:
‘‘उनसे कह दो यदि तुम्हें अपने पिता, बेटे, भाई, पत्नियाँ, नातेदार और वे धन जो तुमने कमाए हैं और वह तिजारत जिसके मंद पड़ जाने का तुम्हें भय लगा हुआ है और वे घर-बार जिन्हें तुम पसन्द करते हो, ईश्वर और उसके रसूल और उसके मार्ग में जिहाद करने से अधिक प्रिय हैं तो बैठे प्रतीक्षा करते रहो, यहाँ तक कि ईश्वर अपना काम पूरा करे। विश्वास रखो कि ईश्वर अवज्ञाकारियों का कभी मार्गदर्शन नहीं करता।’’ (क़ुरआन, 9:24)

युद्ध की महत्ता का कारणविचार कीजिए कि ईश्वरीय मार्ग में जिहाद की इतनी महत्ता और प्रशंसा किस लिए है? जिहाद करने वालों को बार-बार क्यों कहा जाता है कि वही सफल हैं और उन्हीं का दर्जा ऊँचा है? और उससे बचकर घर बैठने वालों को ऐसी चेतावनियाँ क्यों दी जाती हैं? इस सवाल को हल करने के लिए तनिक क़ुरआन की उन आयतों पर फिर एक दृष्टि डाल लीजिए जिनमें जिहाद का आदेश और उसका महत्व और विशिष्टता और उससे भागने की बुराई बयान की गई है। इन आयतों में सफलता और महानता का अर्थ किसी स्थान पर भी धन-दौलत और देश और राज्य का प्राप्त करना नहीं बताया गया। कु़रआन में कहीं यह कहकर ईश्वरीय मार्ग में लड़ने के लिए प्रेरित नहीं किया गया है कि इसके बदले तुम्हें सांसारिक धन और राज्य प्राप्त होगा। बल्कि इसके विपरीत प्रत्येक जगह ईश्वरीय मार्ग में जिहाद के बदले ईश-प्रसन्नता और केवल ईश्वर के यहाँ बड़ा दर्जा मिलने और पीड़ादायी यातना से सुरक्षित रहने की आशा दिलाई गई है। हाजियों को पानी पिलाना और प्रतिष्ठित मस्जिद (काबा) के आबाद करने से जो, अरब में बड़ी पहुँच और प्रभाव और बड़ी आमदनी का साधन था, घरबार छोड़कर निकल जाने और ईश्वरीय मार्ग में जिहाद करने को श्रेष्ठ काम बताया और फिर इसके बदले ‘‘ईश्वर के निकट बड़े दर्जे’’ के सिवा और किसी पुरस्कार का उल्लेख नहीं किया। दूसरी जगह एक व्यापार का गुर सिखाया है जिससे ख़्याल होता है कि शायद यहाँ कुछ धन-दौलत का उल्लेख हो। किन्तु पढ़कर देखिए तो इस व्यापार की वास्तविकता यह निकलती है कि ईश्वर के मार्ग में जान और माल खपाओ और इसके बदले में यातना से छुटकारा प्राप्त करो। एक और स्थान पर लड़ाई से जी चुराने वालों को इस बात पर डाँटा जा रहा है कि वे बीवी-बच्चों के प्रेम में ग्रस्त पाए जाते हैं और अपने कमाए हुए धन अपने व्यापार की मन्दी और अपने मनभाते घरों के छूटने से डरते हुए दिखाई देते हैं। जब कि दुनिया में युद्ध करके जो लोग देश पर विजय प्राप्त करते हैं उन्हें रुपया भी ख़ूब मिलता है, उनका व्यापार भी ख़ूब चमकता है और उन्हें विजित जाति से छीने हुए भव्य भवन भी रहने को मिलते हैं।
फिर जब इस जिहाद से सांसारिक धन और देश पर विजय पाना अभीष्ट नहीं है तो फिर इस रक्तपात से ईश्वर को क्या मिलता है कि वह इसके बदले में इतने बड़े-बड़े दर्जे दे रहा है? फिर इस आशंकापूर्ण काम में क्या रखा है जिसकी भाग-दौड़ से धूल-धूसरित पैरों तक को कृपा-दृष्टि और अनुकम्पा का कारण बताया जाता है और फिर इसमें कौन-सी सफलता निहित है कि इस शुष्क और निस्वाद युद्ध में लड़ने वालों को बारम्बार ‘‘वही सफलता प्राप्त करने वाले हैं’’ कहा जा रहा है? इसका उत्तर ‘‘और यदि ईश्वर मनुष्यों के एक गिरोह को दूसरे गिरोह के द्वारा हटाता न रहता तो धरती बिगाड़ से भर जाती’’, ‘‘अगर तुम यह न करोगे तो धरती में फ़ित्ना (उपद्रव) और बड़ा बिगाड़ पैदा होगा’’ में निहित है। ईश्वर यह नहीं चाहता कि उसकी धरती पर उपद्रव और बिगाड़ फैलाया जाए। वह यह सहन नहीं कर सकता कि उसके बन्दों को अकारण सताया और तबाह और बर्बाद किया जाए। उसे यह पसन्द नहीं है कि बलवान दुर्बलों को खा जाएँ, उनकी शान्ति पर डाके डालें और उनके नैतिक, आध्यात्मिक और भौतिक जीवन को तबाही में डाल दें। उसे यह स्वीकार नहीं है कि संसार में दुराचार, दुष्कर्म, अत्याचार, अन्याय और हत्या एवं विनाश का सिलसिला जारी रहे। वह पसन्द नहीं करता कि जो केवल उसके बन्दे हैं, उनको लोगों का बन्दा बनाकर उनके मानवीय गौरव पर अपमान का दाग़ लगाया जाए। अतः जो गिरोह बिना किसी बदले की इच्छा, बिना किसी धन-दौलत के लालच, बिना किसी व्यक्तिगत लाभ की कामना के केवल ईश्वर के लिए संसार को इस उपद्रव से मुक्त करने के लिए और इस अन्याय को दूर करके इसके स्थान पर न्याय स्थापित करने के लिए खड़ा हो जाए और इस सुकर्म में अपने प्राण और धन, अपने व्यापारिक लाभ, अपने बाल-बच्चों और बाप-भाइयों के प्रेम और अपने घर-बार के सुख और आराम सबको त्याग दे, उससे अधिक ईश्वर के प्रेम और ईश-प्रसन्नता का अधिकारी कौन हो सकता है और सफलता का द्वार उसके सिवा किसके लिए खुल सकता है?
ईश्वरीय मार्ग में जिहाद की यही विशिष्टता है जिसके कारण उसे समस्त मानवीय कर्मों में ईश्वर पर ईमान के बाद सबसे बड़ा दर्जा दिया गया है। और ध्यान से देखा जाए तो मालूम होगा कि वास्तव में यही चीज़ समस्त श्रेष्ठताओं और नैतिक विशिष्टताओं की आत्मा है। मनुष्य की यह भावना कि वह बुराई को किसी दशा में भी सहन न करे और उसे दूर करने के लिए हर प्रकार की कु़रबानी देने के लिए तैयार हो जाए, मानवीय गौरव की सबसे उच्च भावना है। और व्यावहारिक जीवन की सफलता का रहस्य भी इसी भावना ही में निहित है। जो व्यक्ति दूसरों के लिए बुराई को सहन करता है, उसकी नैतिक दुर्बलता उसे अन्ततः इस पर भी आमादा कर देती है कि वह स्वयं अपने लिए बुराई को सहन करने लगे। और जब उसमें सहन कर यह गुण पैदा हो जाता है तो फिर वह इतना अधिक अपमानग्रस्त होता है जिसे ईश्वर ने अपने प्रकोप से अभिव्यंजित किया है:
‘‘और उन पर अपमान और हीन दशा थोप दी गई और वे ईश्वर के प्रकोप के भागी हुए।’’ (क़ुरआन, 2:61)
इस स्तर पर पहुँचकर मनुष्य के भीतर प्रतिष्ठा एवं मानवता का कोई एहसास बाक़ी नहीं रहता। वह शारीरिक एवं भौतिक दासता ही नहीं, बल्कि मानसिक एवं आध्यात्मिक दासता में भी ग्रस्त हो जाता है और अधमता के ऐसे गढ़े में गिरता है जहाँ से उसका निकलना असम्भव हो जाता है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति में यह नैतिक शक्ति मौजूद हो कि वह बुराई को मात्रा बुराई होने के कारण बुरा समझे और मानव-जाति को उससे मुक्त करने के लिए अथक प्रयास करता रहे, वह एक सच्चा और उच्च कोटि का मनुष्य होता है और उसका अस्तित्व मानव-जगत के लिए सर्वथा दयालुता होता है। ऐसे व्यक्ति को चाहे संसार से किसी बदले की इच्छा न हो, किन्तु दुनिया उन समस्त अकृतज्ञताओं के होते हुए जिनके दाग़ उसके माथे पर पाए जाते हैं, उपकार से इतनी अनभिज्ञ व उदासीन भी नहीं है कि वह मानवता के उस सेवक को अपना सरताज, अपना पेशवा और अपना नायक स्वीकार न कर ले जो बेलाग और प्रतिदान से निस्पृह होकर उसे बुराई के क़ब्ज़े से छुड़ाने और नैतिक एवं आध्यात्मिक और भौतिक स्वतंत्राता प्रदान करने के लिए अपना सब कुछ कु़रबान कर दे। इसी से इस आयत का अर्थ समझ में आता है, जिसमें कहा गया है कि ‘‘धरती के वारिस मेरे नेक बन्दे होंगे।’’ (क़ुरआन, 21:105); और यहीं से यह बात निकलती है कि ‘‘वही हैं जो सफलता प्राप्त करने वाले हैं।’’ (क़ुरआन, 9:120); इससे अभिप्रेरत केवल परलोक ही की सफलता नहीं है, बल्कि संसार की सफलता भी वास्तव में उन्हीं लोगों के लिए है जो तुच्छ इच्छाओं से मुक्त होकर मात्र ईश-प्रसन्नता और ईश्वर के बन्दों की भलाई के लिए जिहाद करते हैं।

सामाजिक व्यवस्था में जिहाद का स्थानजिहाद की इस वास्तविकता को जान लेने के पश्चात यह समझ लेना बहुत आसान है कि क़ौमों की ज़िन्दगी में इसको क्या स्थान प्राप्त है और सामाजिक व्यवस्था को ठीक रखने के लिए इसकी कितनी आवश्यकता है। यदि संसार में कोई ऐसी शक्ति मौजूद हो जो बुराई के विरुद्ध निरंतर जिहाद करती रहे और समस्त सरकश क़ौमों को अपनी-अपनी सीमा की पाबन्दी पर बाध्य कर दे तो सामाजिक व्यवस्था में यह असंतुलन कदापि दिखाई न दे कि आज सम्पूर्ण मानव-जगत अत्याचारियों और उत्पीड़ितों, आक़ाओं और ग़ुलामों में विभक्त है और सम्पूर्ण संसार में नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन कहीं दासता और अत्याचार के कारण और कहीं गु़लाम बनाने और दमनकारिता के कारण विनष्ट हो रहा है। बुराई को दूसरों से हटाना तो एक बड़ा दर्जा है, यदि उसे स्वयं अपने से हटाने का एहसास भी एक क़ौम में मौजूद हो और इसके मुक़ाबले में वह अपने सुख-विलास को, अपने धन-वैभव को, अपने ऐन्द्रिक आनन्दों और अपने प्राण के प्रेम को, सारांश यह कि किसी चीज़ को भी प्रिय न समझे तो वह कभी अपमानित होकर नहीं रह सकती और उसकी प्रतिष्ठा को कोई शक्ति रौंद नहीं सकती। सत्य के आगे सिर झुकाना और असत्य के आगे सिर झुकाने पर मृत्यु को प्राथमिकता देना एक प्रतिष्ठित क़ौम की विशेषता होनी चाहिए और यदि वह सत्य को उच्चता प्रदान करने और सत्य की सहायता की शक्ति न रखती हो तो उसे कम-से-कम सत्य की सुरक्षा पर दृढ़ता के साथ अवश्य अटल रहना चाहिए जो प्रतिष्ठा का कम-से-कम दर्जा है। किन्तु इस दर्जे से गिरकर जो क़ौम सत्य की रक्षा भी न कर सके और उसमें उत्सर्ग और कु़रबानी का अभाव इतना बढ़ जाए कि बुराई और दुष्टता जब उस पर चढ़कर आए तो वह उसे मिटाने या स्वयं मिट जाने के बजाय उसके अधीन जीवित रहने को स्वीकार कर ले तो ऐसी क़ौम के लिए दुनिया में कोई प्रतिष्ठा नहीं है। उसका जीवन निश्चय ही मृत्यु से निकृष्ट है। इसी रहस्य को समझाने के लिए ईश्वर ने बार-बार अपनी तत्वदर्शितापूर्ण पुस्तक में उन जातियों का उल्लेख किया है जिन्होंने बुराई के विरुद्ध जिहाद करने में प्राण, धन और ऐन्द्रिक सुखों का टोटा देखकर उससे जी चुराया और बुराई का अधिपत्य स्वीकार करके अपने ऊपर सदैव के लिए घाटा और असफलता का दाग़ लगा लिया। ऐसी क़ौमों को ईश्वर ज़ालिम क़ौमें कहता है। अर्थात् उन्होंने अपने कर्मों से स्वयं अपने ऊपर जु़ल्म किया और वास्तव में वे अपने ही जु़ल्म से विनष्ट हुईं। 

अतएव एक स्थान पर इस प्रकार उनका उदाहरण दिया है:
‘‘क्या उन्हें उन लोगों का वृत्तांत नहीं पहुँचा जो उनसे पहले गुज़रे हैं—नूह के लोगों का, आद और समूद का, और इबराहीम की क़ौम का और मदयन वालों का और उन बस्तियों का जिन्हें उलट दिया गया? उनके रसूल उनके पास खुले-खुले मार्गदर्शन लेकर आए थे, फिर ईश्वर ऐसा न था कि वह उन पर अत्याचार करता, किन्तु वे स्वयं अपने आप पर अत्याचार कर रहे थे। रहे ईमान वाले मर्द और ईमान वाली औरतें, वे सब परस्पर एक-दूसरे के सहयोगी हैं। भलाई का हुक्म देते हैं और बुराई से रोकते हैं।’’ (क़ुरआन, 9:70-71)
यहां पिछली क़ौमों के अपने आप पर जु़ल्म करने का उल्लेख करते ही जो ईमान वालों का यह गुण बताया है कि वे एक-दूसरे के मित्र और सहायक हैं और नेकी को क़ायम करते और बुराई को रोकते हैं तो इससे स्पष्टतः यही बताना अभीष्ट है कि उन मिटने वाली क़ौमों ने भलाई का हुक्म देना और बुराई को रोकना छोड़ दिया था। और यही उनका वह जु़ल्म था जिसने अंततः उनको तबाह किया।
एक और जगह ‘बनी-इसराईल’ की कायरता और जिहाद से जी चुराने के अत्यंत शिक्षाप्रद परिणाम का उल्लेख किया गया है। कहा कि मूसा (अलैहि॰) ने अपनी क़ौम को ईश्वर की अनुकम्पाओं का स्मरण कराकर आदेश दिया कि तुम पवित्रा भू-भाग में प्रवेश करो जिसे ईश्वर ने तुम्हारी मीरास में दिया है। और कदापि पीठ मत पे$री, क्योंकि पीठ पे$रने वाले सदैव असफल रहा करते हैं। किन्तु बनी-इसराईल पर भय छाया हुआ था। उन्होंने कहा:
‘‘ऐ मूसा! उस भूभाग में तो बड़े शक्तिशाली लोग रहते हैं। हम तो वहाँ कदापि नहीं जा सकते, जब तक कि वे वहाँ से निकल नहीं जाते। हाँ, यदि वे वहाँ से निकल जाएँ तो हम अवश्य प्रविष्ट हो जाएँगे।’’ (क़ुरआन, 5:22)
क़ौम के दो नवयुवकों ने, जिन पर ईश्वर ने कृपा की थी, क़ौम को परामर्श दिया कि तुम निर्भय होकर प्रवेश करो। तुम्हीं प्रभावी रहोगे। और यदि तुम्हें ईमान की दौलत प्राप्त है तो ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए। किन्तु वे कायर और हीन दशा पर संतुष्ट रहने वाली क़ौम मनुष्यों के भय से काँपती ही रही और उसने साफ़ कह दिया कि:
‘‘ऐ मूसा! जब तक वे लोग वहाँ हैं, हम तो कदापि वहाँ नहीं जाएँगे। ऐसा ही है तो जाओ तुम और तुम्हारा रब, और दोनों लड़ो, हम तो यहीं बैठे रहेंगे।’’
(क़ुरआन, 5:24)
अन्ततः इस कायरता के कारण ईशतेजस्विता ने यह निर्णय किया कि वे चालीस वर्ष तक इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहें और कहीं उनको ठिकाना न मिल सके। (ईश्वर ने) कहा:
‘‘अच्छा तो अब यह भूमि चालीस वर्ष तक इनके लिए वर्जित है। ये धरती में मारे-मारे फिरेंगे।’’ (क़ुरआन, 5:26)
एक दूसरी जगह विस्तारपूर्वक बनी-इसराईल के, अपनी जान और माल के साथ उस पे्रम और कायरता और मृत्यु के भय का उल्लेख किया गया है जिसके कारण उन्होंने ईश्वरीय मार्ग का जिहाद त्याग दिया और जिसके कारण अन्ततः वे क़ौमी विनाश में ग्रस्त हुए। 

कहा गया है:
‘‘क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो हज़ारों की संख्या में होने पर भी मृत्यु के भय से अपने घर-बार छोड़कर निकले थे? तो ईश्वर ने उन पर मौत ही का आदेश भेज दिया। फिर उसने उन्हें दोबारा जीवन प्रदान किया। वास्तविकता यह है कि ईश्वर तो लोगों के लिए उदार अनुग्राही है, किन्तु अधिकतर लोग कृतज्ञता नहीं दिखलाते।’’ (क़ुरआन, 2:243)
इसके बाद ही इस तरह मुसलमानों को लड़ने का आदेश दिया है:
‘‘ईश्वर के मार्ग में युद्ध करो और जान लो कि ईश्वर ख़ूब सुनने और जानने वाला है।’’ (क़ुरआन, 2:244)

और इसके बाद पुनः इसराईल के गिरोह का उल्लेख किया है:

‘‘क्या तुमने मूसा के पश्चात् इसराईल की संतान के सरदारों को नहीं देखा, जब उन्होंने अपने एक नबी से कहा: ‘हमारे लिए एक सम्राट नियुक्त कर दो, ताकि हम ईश्वर के मार्ग में युद्ध करें?’ नबी ने कहा: ‘यदि तुम्हें कोई लड़ाई का आदेश दिया जाए तो क्या तुम्हारे बारे में यह संभावना नहीं है कि तुम न लड़ो?’ वे कहने लगे: ‘हम ईश्वर के मार्ग में क्यों न लड़ेंगे जबकि हम अपने घरों से निकाल दिए गए हैं और अपने बाल-बच्चों से भी अलग कर दिए गए हैं?’—फिर जब उन पर युद्ध अनिवार्य कर दिया गया तो उनमें से थोड़े लोगों के सिवा सबके सब फिर गए। और ईश्वर ज़ालिमों को भली-भांति जानता है।’’ (क़ुरआन, 2:246)

यह और ऐसे बहुत-से उदाहरण बार-बार इसी तथ्य को समझाने के लिए प्रस्तुत किए गए हैं कि भलाई की स्थापना और उसके स्थायित्व के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी चीज़ उसकी रक्षा करने वाले सच्चे उत्सर्ग की आत्मा है और जिस क़ौम से यह आत्मा विदा हो जाती है वह बहुत जल्द बुराई से पराजित होकर विनष्ट हो जाती है।
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समाप्त
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